Climate conference सुर्खियों के सुखबोध का सच

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Climate conference जलवायु सम्मेलन के बाद सुर्खियों में जो सुखबोध दिख रहा है, उसमें ज्यादा दम नहीं है। इन सम्मेलनों की फिलहाल इतनी ही प्रासंगिकता है कि इनके जरिए जलवायु परिवर्तन पर दुनिया का ध्यान जाता है।

Climate conference ये हर साल की कहानी है। नवंबर या दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र का जलवायु सम्मेलन होता है। जब ये समाप्त होता है तो सुर्खियों में बताया जाता है कि एक बड़ी सहमति के साथ सम्मेलन हुआ। मिस्र में हुए 27वें जलवायु सम्मेलन की कथा इससे अलग नहीं है। कहा गया है कि लॉस एंड डैमेज के मुद्दे पर बड़ी कामयाबी से सम्मेलन की समाप्ति हुई। लेकिन आखिर ये बड़ी कामयाबी क्या है? धनी देश सिद्धांत रूप में इस पर राजी हुए कि भविष्य में अगर जलवायु परिवर्तन के कारण आई प्राकृतिक आपदा के किसी गरीब देश को क्षति होती है, वे उसकी भरपाई में वित्तीय योगदान करेंगे। इस कोष का स्वरूप क्या होगा, इस बारे में अगले साल होने वाले सम्मेलन में फैसला किया जाएगा।

कौन देश कितना योगदान करेगा, इस बारे में कोई विवरण तय नहीं हुआ। उलटे धनी देश यह मनवाने में सफल हो गए कि ऐतिहासिक रूप से उन्होंने कार्बन उत्सर्जन के जरिए वातावरण को जो नुकसान पहुंचाया है, उसकी जिम्मेदारी से उन्हें मुक्त कर दिया जाएगा। गौरतलब है कि अब तक के सभी सम्मेलनों में उनकी इस जिम्मेदारी चर्चा होती रही थी।

इसके अलावा धरती के तापमान में वृद्धि को औद्योगिक युग शुरू होने के समय की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक ना बढऩे देने के किसी नए उपाय पर चर्चा नहीं हुई और गरीब देशों ने इस पर जोर भी नहीं डाला। बहरहाल, यहां यह जरूर याद कर लेना चाहिए कि 2009 में कोपेनहेगन में हुए सम्मेलन में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पहल पर धनी देशों ने जलवायु परिवर्तन रोकने के उपायों के लिए 100 बिलियन डॉलर का फंड बनाने का संकल्प लिया था।

वह संकल्प आज तक घोषणाओं से आगे नहीं बढ़ सका। तो नई सहमति का क्या हाल होगा, यह सवाल वाजिब है। इसलिए मिस्र के शरम अल-शेख में हुए सम्मेलन के बाद मीडिया की सुर्खियों में जो सुखबोध दिख रहा है, उसमें ज्यादा दम नहीं है। इन सम्मेलनों की असल में फिलहाल इतनी ही प्रासंगिकता रह गई है कि इनके जरिए जलवायु परिवर्तन की समस्या पर दुनिया का ध्यान जाता है। और समस्या है, तो उस पर बात होती रहनी चाहिए, यह आम समझ है।

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