आज की जनधारा : सफर के 33 साल, विश्वसनीयता के साथ चुनौतियों का सामना

Aaj Ki Janadhara

Aaj Ki Janadhara: 33 years of journey, facing challenges with credibility

‘आज की जनधारा दैनिक समाचार पत्र का सूत्र वाक्य है ‘सीधी और सच बात, साहस के साथ। जनधारा की 33 सालों की यात्रा में हमारे हिस्से 17 साल दर्ज है। इस यात्रा में हमने अपनी विश्वसनीयता को बनाये रखते हुए बहुत सी चुनौतियों का सामना किया। आज ‘जनधारा समूह मीडिया जगत में अपने सामाजिक सरोकार, अपनी बेबाक टिप्पणियों और विश्वसनीय खबरों, नवाचार के लिए जाना जाता है।
ऐसे समय जब देश में ‘इंडिया नामक संगठन कुछ टीवी चैनल के पत्रकारों को उनके एकतरफा दुर्भावनापूर्ण रवैये के लिए प्रतिबंधित कर रहा हो, जहां मीडिया के साथ ‘गोदी शब्द जोड़ा जा रहा हो, जब सूचनाओं की भरमार हो, जब व्हाट्सअप के जरिए झूठ और सच का अंतर समाप्त किया जा रहा हो या बहुत सारे पोर्टल सुपारी किलर की भूमिका निभाने पर आमादा हो। ऐसे में किसी मीडिया समूह के अखबार, पोर्टल, टीवी चैनल पर सही और बैलेंस खबरें देना जरूरी काम है, जिसे हम और हमारी टीम पूरी निष्ठा, ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ कर रही है। हमारे पास स्व. बबन प्रसाद मिश्र, दिवाकर मुक्तिबोध, स्व. देवेन्द्र कर जैसे लोगों की साझी विरासत है।
स्व. बबन प्रसाद मिश्र जो मेरे अग्रज हैं उनका मानना था कि ‘पत्रकारिता के लिए बड़े भवन के बारे मे मेरी धारणा यही है कि बड़े भवन गूँगे-बहरे होते हैं। वे केवल इतिहास के साक्षी होते हैं। कभी-कभी उनमें पत्रकारिता के नाम पर झूठी आत्माओं का वास होता है। समाचारपत्र के लिए वहां स्थिति बड़ी अनूकुल नही होती, क्योंकि समाचार पत्र मूलत: उस जनता के लिए होते हैं जिसमें सभी वर्ग के व्यक्ति आते हैं। कोई भी समाचार पत्र का दफ़्तर मेरी सोच के अनुसार ऐसा नहीं बनना चाहिए जिसमें प्रवेश से आम आदमी डरे या आम जनता उससे दूर रहे या उस भवन में प्रविष्ट होते ही उसका कोई कर्मचारी भय, स्वार्थ या अहम पाल ले। बंदूक की गोलियों से एक या दो चार आदमी मरते हैं किन्तु अख़बार की एक ख़बर सैकड़ों-हज़ारों लोगों की भावना को हताहत करती है।
आज 24 घंटे जनभावनाओं को हताहत करने का सिलसिला निरंतर जारी है हम खबरों के संतुलन का समीकरण कैसे स्थापित हो, इस जुगत में रहते है। हम अपने सभी पाठकों, दर्शकों के आभारी हैं, जिनकी ताकत और उत्साह से हम कठिन समय में भी अपना समाचार-पत्र, वेबपोर्टल और टीवी चैनल चला पा रहे हैं। मीडिया में बहुत तेजी से बदलाव आया है। यह बदलाव केवल तकनीक के स्तर पर ही नहीं कथ्य और सोच के स्तर पर भी है। बड़ी पूंजी और संसाधनों के चलते मीडिया हाउस अब धीरे-धीरे कारपोरेट पूंजी के अधीन हो गये हैं। जो अखबार, वेब पोर्टल बचे हैं, वे भी आगे कितने साल तक संघर्ष कर पायेंगे, यह कहना मुश्किल है। अधिकांश इस समय आक्सीजन सिलेंडर पर हैं। मीडिया के सामने चुनौतियां पहले भी कम नहीं थी किन्तु आज की तरह एजेंडा आधारित पत्रकारिता पहले नहीं हुई। सत्ता, प्रतिष्ठानों और पूंजी के दबाव के चलते आज स्वतंत्र मीडिया को बनाये, बचाये रखना मुश्किल हो रहा है। बाहर से बहुत शक्तिशाली, मुखर और तेज-तर्रार दिखने वाला मीडिया से जुड़ा पत्रकार अपने संस्थान में किसी कठपुतली की तरह है। जहां उसे वही बोलना, लिखना है, जो उसके हुकुमरान चाहते हैं। संपादक नामक संस्था मैनेजर में तब्दील होती जा रही है। टीवी चैनल पर होने वाले डिबेट बहुत बार एक तरफ़ा या नूरा कुश्ती का अखाड़ा बनते दिखते है।
मीडिया का आचरण बहुत हद तक सांप्रदायिक और अपराधिक किस्म का होता जा रहा है। हमारे समय में वफादारी दिखाने की होड़ में भक्ति और शक्ति के साथ गोदी मीडिया की भूमिका तो अब इतनी कलंकित हो चुकी है कि टीवी अब भूत का बक्सा लगता है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में अधिकांश चैनलों के पास न रीढ़ बची और न साहस। साम, दाम, दंड, भेद आदि से मीडिया झुक चुका है, बिक चुका है। इलेक्ट्रानिक मीडिया की विश्वसनीयता तो खत्म हो रही है।
लोगों को जहां बोलना चाहिए वहां भी वे चुप रहते हैं। जहां दूर से प्रणाम करना चाहिए वहां लेटने लगते हैं। सत्ता का आकर्षण, दबाव इतना ज्यादा है कि जो अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े लम्बरदार बनते हैं, वह अब उसके दरबारी हो गये हैं। ग्लैमर और कारपोरेट पूंजी से लबरेज नये मीडिया के पास अब गरीब आदमी के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है। हमारा मीडिया भी जनता को जरुरी मुद्दों से भटकाकर वो सब दिखा रहा है, जो उसके बुनियादी प्रश्न नहीं है।
अपने अखबार ‘आज की जनधारा के साथ जब मैंने सेवानिवृत्ति के बाद अपनी नई पारी की शुरुआत की तो बेशक अखबार के साथ निरंतरता और एकाग्रता के साथ काम करने की जिम्मेदारी और चुनौतियां तो थी। ऐसा नहीं है कि मैं अखबारी जर्नलिज़्म से अनभिज्ञ था। मेरे बड़े भाई स्व. बबन प्रसाद मिश्र छत्तीसगढ़ के एक महत्त्वपूर्ण अखबार युगधर्म, नवभारत, आज की जनधारा के सम्पादक थे। लिखने-पढऩे की पारिवारिक पृष्ठभूमि तो थी ही। अखबार और उसके साथ सम्बद्ध व्यक्तियों का साहचर्य भी मेरे लिए नई बात नहीं थीं। मैं यथासंभव रोज़ सम्पादकीय के रूप में त्वरित टिप्पणी लिखता हूं और फिर उसे सुभाष की बात के नाम से अपने टीवी चैनल एश्यिन न्यूज़ पर बोलता हूँ।
लेकिन यह भी था कि संपादकीय लिखना या फिर विशेष टिप्पणी का प्रथम पेज पर जाना। इस अनुभव के साथ एकाकार होना यक़ीनन नई बात थी। गौर करिए कि यह प्रथम पेज पर जाने वाली टिप्पणी दो से ढाई सौ शब्दों का कोई पड़ाव मात्र नहीं, मुक्कमिल आलेख की तरह था। सप्ताह में विशेष मुद्दों पर तो लिख ही रहा था। लेकिन कोरोना महामारी के करुण हालात के दौरान उसने कुछ और गति पकड़ी। अखबार की जिंदगी में चुनौतियां लगातार हैं और वह चुनौतियां बढ़ती चली जा रही है! रोज लिखना आसान नहीं होता। लेकिन जब आप सक्रिय पत्रकारिता का हिस्सा बनते हैं तो कोई विकल्प भी आपके सामने नहीं होता। मेरे सामने चूंकि इससे बचने का कोई विकल्प नहीं था तो यही एक विकल्प था कि मैं ‘उन मुद्दों को, ‘उन बातों को ‘उन विषयों को लेकर अपनी राय जाहिर करूं-जो समाज को एक प्रकार से मथ रही हैं।
यह सूचना समर का समय है। सूचनाओं की भरमार के बीच यह सवाल लाजमी हो गया है कि एक आदमी को कितनी सूचनाएं, कितनी जानकारी, कितना मनोरंजन चाहिए। ब्रेकिंग न्यूज, प्रायोजित न्यूज और टीआरपी के चक्कर में मीडिया खुद ही अपनी कब्र खोद रहा है। सवाल, जवाब और निर्णय सुनाने के साथ-साथ अब मीडिया अपनी प्रस्तुति को ड्रामेटाइज करने लगा है। ऐसा नहीं था कि प्रिंट मीडिया के दौर में पीत पत्रकारिता नहीं हो रही होगी या समाचार पत्र अपने हितों को नहीं साध रहे थे। निष्पक्ष पत्रकारिता करने वाले समाचार पत्रों के अपने व्यवसायिक हित भी थे, किन्तु उनकी खबरों में इतनी लम्पटता, अविश्वसनीयता या पूर्वाग्रह नहीं था, जितना की आज के टीवी चैनलों, न्यूज वेबपोर्टल पर दिखाई देता है। छोटे शहरों, कस्बो में भी मीडिया से जुड़े लोग जहां अपने व्यक्तिगत हितों के लिए छोटे-मोटे अफसरों, ठेकेदारों, भू-माफिया, रेत-माफिया से विज्ञापन के लिए या अन्य छोटे-मोटे काम के लिए अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहते, लाभ लेते हैं। किन्तु अब बड़े स्तर पर उस तरह अनर्गल झूठी खबरें देने की हिम्मत नहीं करते, जितनी महानगर के स्टुडियों में बैठें पत्रकार। गांव, कस्बों, छोटे शहरों में अभी भी समाज के प्रति लोगों की जवाबदेही बची हुई है। लोग क्या कहेंगे का डर बना हुआ है। अब धीरे-धीरे ये पर्दादारी खत्म हो रही है। बहुत से लोकल से लेकर ग्लोबल मीडिया समूह एक ही थैली के चट्टे-बट्टे की तरह नजर आ रहे हैं।
उनके पास मीडिया से इतर भी बहुत से काम है, उद्योग धंधे हैं, जिनके हितों का संरक्षण करने के लिए उन्हें बहुत सी खबरों को लाभ के नजरिये से दिखाना पड़ता है।
इस समय पूरे देश का मीडिया दो खेमों में साफ नजर आ रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग सत्ताधारी दल और उसकी विचारधारा को आगे बढ़ाते दिखता हैं, तो दूसरा खेमा जनपक्ष की पत्रकारिता की बात कर रहा है। सभी जगह प्रमुख मुद्दा विश्वसनीयता और निष्पक्षता को लेकर है, जिस पर इस समय गहरा संकट दिखाई देता है।
सामाजिक प्रतिबद्धता को तो मीडिया कब से अलविदा कह चुका है। आज का मीडिया जितना राजनीतिक आग्रहों से संचालित होता है, उससे कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा और निजी लाभ के गणित तैयार होने लगे हैं। ऐसा लगता है, जैसे यह सदी अपने साथ सूचना-युद्ध के नाद को साथ लेकर आई है। सूचना तंत्र अब विश्व इकोनॉमी को संचालित कर रहा है या इसमें बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। इंटरनेट के आने से प्रिंट मीडिया को परोक्ष में कोई खतरा नहीं है, लेकिन खबर से लेकर विज्ञापन तक का स्वरूप बदला है। प्रिंट मीडिया का पुराना स्वरूप, संरचना, लेआउट से लेकर भाषा तक बदल चुकी है। इंटरनेट ने सेंसर जैसे अनिवार्य दखल को खत्म कर दिया है। भूमंडलीकरण दरअसल बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एम.एन.सी.) की साम्राज्यवाद को लेकर एक प्रबल और प्रमुख महत्वाकांक्षा है। उन्होंने सिर्फ शहरों को नहीं, कस्बों और गाँवों की दबी-छिपी पूँजी को बाजार के चक्र में चलायमान किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी साम्राज्यवादी इच्छाओं को एक अनिवार्य व्यवस्था में तब्दील कर विश्वसनीय भी बना दिया है। उनके इस काम में मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है। दरअसल, इन दिनों मीडिया देश की सामान्य जनता की इच्छा और संकल्प को इतनी चतुराई से बदल रहा है कि वे अनचाहे उस बाजार के हवाले हो रहे हैं, जो पहले ही मीडिया के अधिकांश हिस्सों को हथियाए हुए हैं।
नैतिकता की सबसे ज्यादा दुहाई देने वाले मीडिया को अब लोकतंत्र की चिंता नहीं है। संपादक अब विचारक नहीं, मैनेजर की जरूरत पूरी कर रहा। जो देश की नई आर्थिक अवधारणाओं के चलते भूमंडलीकरण की लहर में खबर को एक उत्पाद में बदलने में निर्लज्ज और बेहिचक कोशिश करने में सफल हो रहा है। इस नए दौर के लोकतंत्र में मीडिया का केंद्रीय महत्तव बढ़ गया है। राजनीति मीडिया पर आधारित है और मीडिया अपनी इस सत्ता-शक्ति का अपने व्यापार हित में पूरा लाभ उठा रहा है। वह राजनीति में नियामक की स्थिति में आ गया है। मीडिया के सत्ताधिकार की इच्छा ने राजनीति के चरित्र को संचालित करने या बनाने-बिगाडऩे का ऐसा संकल्प ले लिया है, जो एक ओर सामान्य जन में विश्वसनीय है तो दूसरी ओर व्यापार-लाभ के दरवाजे खोल रहा है। यही कारण है कि राजनीति की मर्यादा और नैतिकता टूटने में आज जरा भी देर नहीं लगती है। आज राजनीति और मीडिया के बीच एक ऐसा गठबंधन है, जो गरम बहस और एक उत्तेजक लड़ाईनुमा साक्षात्कार के नाटक के साथ एक-दूसरे के हित साधन है। मीडिया ने स्वयं को जनमानस तक राजनीति को पहुँचाने का निर्वैकल्पिक रास्ता बना दिया है। वह राजनीति को सूचना में बदलकर व्यापार का हिस्सा बना रहा है। मीडिया ने एक ऐसा यथार्थ रचा है, जो आपकी मरजी मुताबिक उसे स्थिर और अस्थिर बनाता है। मीडिया को यदि उद्योग रूप से बाहर लाया जाए और उसकी बाजार में दाखिल होने की इच्छा को खत्म किया जा सके, तो मीडिया एक बड़े सकारात्मक रूप में और बड़ी शक्ति के रूप में नजर आएगा।
सामान्य पाठक या कहें जनता के प्रति पवित्र कही जानेवाली पत्रकारिता के प्रति उसने अपनी जवाबदेही खत्म कर ली है। संपन्न वर्ग और राजनीतिज्ञों के चेहरे पर इस नई पत्रकारिता से उपजे भय से आज की पत्रकारिता सार्थक आनंद नहीं, एक निर्मम दंभ से भर जाती है। इसीलिए आज चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, दोनों में इस भय के व्यावसायिक उपयोग के लिए प्राय: भय निर्माण भी किया जाने लगा है।
24&7 खबरों की बात करने वाले टीवी न्यूज़ चैनल खुद ही ख़बर बन गये हैं। टीआरपी के झगड़े के साथ-साथ टीवी चैनलों पर आज आपसी गलाकाट स्पर्धा देखने को मिलती है।

 

 

 

 

 

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