South India कांग्रेस की दक्षिण भारत पर निगाह

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अजय दीक्षित

South India कांग्रेस की दक्षिण भारत पर निगाह

South India 80 साल के मल्लिकार्जुन खडग़े 137 साल पुरानी कांग्रेस के 98वें अध्यक्ष तो बन गये हैं पर उनकी असली परीक्षा अब होगी । इसलिए नहीं कि 24 साल के अन्तराल के बाद कोई गैर-गांधी कांग्रेस की कमान संभाल रहा है, बल्कि इसलिए भी कि देश की सबसे पुरानी यह राजनीतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है । लगातार दो लोक सभा चुनाव और दर्जन भर से भी ज्यादा विधानसभा चुनावों में शर्मनाक पराजय से उपजी निराशा और हताशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस गांधी परिवार को कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व माना जाता रहा, उसी पर जी-23 ने बाकायदा पत्र लिख कर सवाल उठाये ।

जी-23 के अग्रणी नेता नवी आजाद ने तो पहले ही राहुल गांधी पर सीधा हमला बोलते हुए जम्मू-कश्मीर में अपनी अलग डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी बना ली पर गांधी परिवार ने खडग़े को अध्यक्ष चुनबाकर परिवारवाद और आन्तरिक लोकतंत्र, दोनों बिन्दुओं पर आलोचकों को जवाव देने की कोशिश की है। बेशक, खडग़े की प्रचंड जीत गांधी परिवार के आशीर्वाद का ही परिणाम रही पर उनके पक्ष में मतदान करने वाले कांग्रेस डेलीगेट्स अपनी जिम्मेदारी -जवावदेही से मुंह नहीं चुरा सकते । राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला भी जानता था कि नया अध्यक्ष गांधी परिवार का विश्वस्त ही होगा ।

South India अशोक गहलोत ने मुख्यमंत्री पद के मोह में जैसे रंग बदले, उसके बाद तो यह और भी जरूरी था कि कांग्रेस के साथ स्वयं भी साख के संकट से गुजर रहा गांधी परिवार किसी तरह का जोखिम न उठाए । इसीलिए अन्तिम क्षणों में खडग़े पर दांव लगाया गया । परिवार का आशीर्वाद खडग़े को मिला तो उसके मूल में भावी राजनीति की रणनीति भी खोजी जा सकती है। दलित समुदाय से आने वाले खडग़े पिछला लोक सभा चुनाव हारने से पहले कर्नाटक के गुलबर्गा से लगातार 10 बार जीत भी चुके हैं ।

पराभव के दौर से गुजर रही कांग्रेस में चुनावी जीत का ऐसा रिकॉर्ड रखने वाले नेता ज्यादा नहीं हैं पर खडग़े को चुनने का यही कारण नहीं है । विधानसभा चुनावों के सन्दर्भ में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा को अपवाद मान लें तो उत्तर भारत से कांग्रेस लगभग लुप्त हो चुकी है । बिहार और झारखण्ड में भी थोड़ी-बहुत बची है तो राजद, जदयू और झामुमो से गठबंधन की बदौलत ।

South India नहीं भूलना चाहिये कि यही उत्तर भारत भाजपा का मुख्य शक्ति केन्द्र भी है । उत्तर भारत के 10 राज्यों और केन्द्रशासित क्षेत्रों : उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, जम्मू और कश्मीर से 180 लोक सभा सांसद चुने जाते हैं । 2019 के लोक सभा चुनाव में इनमें 122 सीटें भाजपा की झोली में गईं । भाजपा को उत्तर भारत से कितनी जवर्दस्त शक्ति मिलती है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसने 50 प्रतिशत मत हासिल करते हुए उत्तर प्रदेश की 80 में से 62 लोक सभा सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस रायबरेली की एकमात्र सीट तक सिमट गई। स्वयं राहुल गांधी अमेठी से हार गये । उन्हें ऐसी आशंका रही होगी, तभी शायद वह केरल के कोट्टायम से भी लोक सभा चुनाव लड़े, और जीत भी गये ।

ऐसे में मल्लिकार्जुन खडग़े को अध्यक्ष बना कर कांग्रेस ने दक्षिण भारत में अपनी जमीन बचाने और भाजपा का विस्तार रोकने की रणनीति बनाई लगती है ।

South India 2019 के लोक सभा चुनाव की ही बात करें तो दक्षिण भारत की कुल 130 सीटों में से भाजपा-नीत राजग के हिस्से 30 सीटें ही आई जिनमें से 25 कर्नाटक से मिलीं । कर्नाटक में लोक सभा की 28 सीटें हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम से तो लगता है कि इस वार भाजपा के लिए कर्नाटक में पुराना प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल होगा । तमिलनाडु के मतदाता अपने मन का संकेत विधानसभा चुनाव में दे ही चुके हैं । पुड्डुचेरी और लक्षद्वीप में एक-एक लोक सभा सीट है । आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में क्षेत्रीय दलों वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस का राज है ।

वाईएसआर का रुख केन्द्र सरकार के प्रति सहयोगात्मक रहा है पर वह भाजपा को राज्य में पैर जमाने देने का जोखिम तो नहीं ही उठायेगी जबकि टीआरएस प्रमुख चंद्रशेखर राव तो खुद ही पीएम बनने के लिए विपक्षी ध्रुवीकरण में जुटे हैं । ऐसे में दक्षिण भारत में कांग्रेस को बड़ी चुनावी सफलता मिले या नहीं पर वह भाजपा का प्रभाव सीमित करने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहेगी । भाजपा से मित्रता न रखने वाले क्षेत्रीय दल भी दक्षिण में बढ़त पाएं तो कांग्रेस को ज्यादा परेशानी नहीं होगी । कांग्रेस की इस रणनीति की पहली परीक्षा अगले साल हो जायेगी जब कर्नाटक, तेलंगाना समेत देश के 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे ।

South India अगले साल 10 राज्यों के विधानसभा चुनाव केन्द्रीय सत्ता के लिए 2024 में होने वाले मुकाबले का सेमीफाइनल माने जा सकते हैं । ताजपोशी के तुरन्त बाद हो रहे हिमाचल और गुजरात के चुनावों के परिणामों की कसौटी पर खडग़े को कसना उनके साथ अन्याय होगा लेकिन अगले साल के चुनाव परिणामों की जिम्मेदारी जबावदेही से वह नहीं बच पाएंगे । कहना न होगा कि इस वीच संगठनात्मक ढांचा तैयार करने से लेकर राजस्थान समेत तमाम राज्यों में गुटबाजी से निपटने जैसी चुनौतियों से तो खडग़े को आये दिन ही दो-चार होना पड़ेगा ।

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