Not right waste of time सही नहीं वक्त की बर्बादी

Not right waste of time

Not right waste of time सही नहीं वक्त की बर्बादी

Not right waste of time भारतीय संसदीय प्रणाली पूरी दुनिया में एक नजीर है। यह प्रणाली यह तय करती है कि इस देश में नीति व कानून कैसे बनाए जाएंगे और जो कुछ तय होगा, उसकी जवाबदेही जितनी कार्यपालिका की होगी, उतनी ही विधायिका की भी।

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यह सत्ता की शक्ति को संतुलित करने की प्रकिया भी है। इसलिए संसद का प्रावधान है और सत्तासीन पक्ष के लिए यह जरूरी है कि यदि वह कोई नया कानून इस देश में लागू करना चाहता है तो उसे संसद में उसे विचारार्थ रखना होगा। हमारे देश में तो लोक सभा और राज्य सभा के रूप में दो सदनों की व्यवस्था है। साथ ही, हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने यह तय किया था कि जब तक दोनों सदनों में सहमति नहीं बन जाती है अथवा बहुमत प्राप्त नहीं हो जाता है, तब तक देश में कोई कानून नहीं बनेगा।

दरअसल, जब संसद का विचार हमारे संविधान के निर्माताओं के जेहन में आया होगा तब उन्होंने यह जरूर सोचा होगा कि कार्यपालिका को जवाबदेह कैसे बनाया जाए? इसके लिए भी उन्होंने संसद को तरजीह दी और संसद को यह अधिकार दिया कि वह सवाल खड़ा करे और सत्ता पक्ष के सवालों का जवाब दे, लेकिन मौजूदा दौर में चुनौती यह है कि संसद की महत्ता को कम किया जा रहा है। और यह केवल सत्ता पक्ष यानी कार्यपालिका के द्वारा ही नहीं, बल्कि विपक्ष के द्वारा भी किया जा रहा है। यह बेहद दुखद है। मसलन; हाल ही में 8 अगस्त, 2022 को संसद के मानसून सत्र को पूर्व निर्धारित सीमा से चार दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया, जबकि पहले इस सत्र को 12 अगस्त, 2022 तक चलना था।

सत्ता पक्ष की ओर से इस बारे में कोई स्पष्ट कारण नहीं बताया गया है। हालांकि सत्ता पक्ष इस बात के लिए विपक्ष पर हमलवार जरूर रहा कि उसने संसद की कार्यवाही में सहयोग नहीं किया और हंगामा किया। इससे पहले कि हम संसद के मानूसन सत्र में जो कुछ हुआ, उस पर विचार करें, पहले हम यह देखें कि इस सत्र के दौरान क्या हुआ। मानसून सत्र 12 अगस्त तक चलना था, लेकिन सरकार की सलाह पर इसे चार दिन पहले ही स्थगित कर दिया गया। राज्य सभा इस दौरान कुल 36 घंटे कार्यवाही चली, जबकि लोक सभा की कार्यवाही कुल 44.29 घंटे रही।

लोक सभा में कुल 16 बैठकें हुई और उत्पादकता के हिसाब से कहें तो उपलब्धि मात्र 48 फीसद रही। लोक सभा की तरह राज्य सभा में भी कार्यवाही विपक्ष के हंगामे के कारण 47 घंटे कामकाज बाधित रही। राज्य सभा के निवर्तमान सभापति वेंकैया नायडू जो इस पद पर अपने आखिरी सदन का संचालन कर रहे थे, ने अफसोस व्यक्त किया कि विपक्ष ने कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने का अवसर गंवा दिया। दरअसल मानसून सत्र के महंगाई एक बड़ा मसला उभरकर सामने आया। विपक्ष इस सवाल पर सरकार से विस्तृत जवाब की मांग कर रहा था, जबकि सत्ता पक्ष की रणनीति इस मुद्दे को टालने की रही। नतीजतन सत्र शुरू से लेकर अंत तक हंगामे का शिकार हुआ।

इस दौरान 23 विपक्षी सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई भी की गई, जिसके कारण भी सदन की कार्यवाही बाधित हुई। संसद के मूल्यवान समय को कैसे जाया होने दिया गया, इसका अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता हे कि मानसून सत्र के दौरान लोक सभा में सरकार केवल छह सरकारी विधेयक आए। इनमें राष्ट्रीय डोपिंग रोधी विधेयक-2022, वन्यजीव संरक्षण संशोधन विधेयक-2022, केंद्रीय विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक-2022 और ऊर्जा संरक्षण संशोधन विधेयक-2022 शामिल हैं। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि कार्यपालिका ने भी मानसून सत्र के पहले अपना काम पूर्ण नहीं किया था।

रही बात महंगाई के सवाल पर चर्चा की तो लोक सभा में इस मुद्दे पर छह घंटे 25 मिनट तक चर्चा हुई। फिर राज्य सभा में भी चर्चा हुई और कार्यपालिका की तरफ से केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जवाब दिया, लेकिन यह तब हुआ जब विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा रहा। ऐसे में यह सवाल तो जरूर उठता है कि आखिर क्या वजह रही कि सत्ता पक्ष ने महंगाई के सवाल पर प्रारंभ में चर्चा नहीं होने दी। हालांकि प्रारंभ में सत्ता पक्ष ने केंद्रीय वित्त मंत्री की अस्वस्थता की जानकारी अवश्य दी थी, लेकिन कार्यपालिका के पास और भी विकल्प अवश्य थे।

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मुमकिन था कि कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते सीधे प्रधानमंत्री इस चर्चा में भाग ले सकते थे या फिर किसी प्रभारी मंत्री को यह जिम्मेदारी दी जा सकती थी। विपक्ष को भी इस बिंदु पर सकारात्मक तरीके से विचार करना चाहिए था। खैर, संसद के समय को किस तरह जाया होने दिया गया, इसका एक अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि लोक सभा में कुल 16 दिन बैठकें हुई और इस दौरान शून्यकाल के दौरान केवल 98 मामले उठाए गए और इनमें भी करीब आधे पर सरकार की ओर से जवाब दिया गया।

इसी प्रकार लोक सभा संचालन नियमावली के नियम 377 के तहत 318 तारांकित व अतारांकित प्रश्न उठाए गए। यदि लोक सभा के कुल सदस्यों की संख्या के लिहाज से देखें तो ये दोनों संख्या बहुत कम हैं। यह संसद के सदस्यों के लिए सवाल भी है कि क्या उनके पास सवाल ही नहीं थे? यह बात ध्यातव्य है कि ये प्रश्न आम जनता से जुड़े प्रश्न होते हैं।

दरअसल, यही संसद सदस्यों के होने की सार्थकता का पर्याय भी है और यही बात बात कार्यपालिका के लिए भी लागू होती है कि जनता के जो सवाल सीधे संसद में उठाए जाते हैं, उनके प्रति वह कितना गंभीर है। दरअसल, लोकतंत्र के लिए जितना संवैधानिक प्रावधान महत्त्वपूर्ण हैं, उतना ही महत्त्व लोकाचार का भी है।

यह पहली बार नहीं हुआ है कि संसद में हंगामा हुआ है। पहले भी हंगामे होते रहे हैं, लेकिन इसकी एक सीमा अवश्य तय होनी चाहिए। कार्यपालिका संसद के प्रति जवाबदेह रहे, यह सुनिश्चित करना संसद के सदस्यों को है। वहीं कार्यपालिका की जिम्मेदारी है कि वह संसद की मर्यादा को समझे।

संसद को केवल राजनीतिक बयानबाजी, आरोप-प्रत्यारोप का स्थान न बनाएं। इतनी शुचिता का ध्यान तो दोनों पक्षों को रखना होगा। दोनों पक्षों का यही प्रयास संसद की महत्ता को बरकरार रखेगा और देश हित में अहम फैसले सर्वसम्मति से लिये जाने का मार्ग प्रशस्त होगा।

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