(Joshimath) प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से -विकास के नाम पर विनाशलीला

development

From the pen of Editor-in-Chief Subhash Mishra – Vinashleela in the name of development

  • सुभाष मिश्र

दुष्यंत कुमार का एक शेर हैं
दायी दिशा से बांयी दिशा को गरुण गया
ये कैसा शगुन हुआ कि बरगद उखड़ गया।।

हम नदी, पहाड़, समुद्र जंगल के किनारे इसलिए भी बसते हैं क्योंकि हमें मालूम होता है कि ये हमें सुरक्षित रखेंगे और आश्रय देंगे, पर जब कभी कोई तूफान आता है या प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है तो बड़े-बड़े पेड़ पहाड़ अपनी जगह से उखड़कर बहुत लोगों को जमींदोज़ कर देते हैं। समुद्र के किनारे बड़ी बस्तियां इस विश्वास के साथ बसे हैं कि समुद्र अपनी हदें पार नहीं करेगा। कभी सुनामी आकर बहुत कुछ नष्ट कर जाती है।

इस पर दुष्यंत कुमार का एक और शेर याद आता है
बाढ़ की संभावनाएं सामने है और नदियों के किनारे घर बने हैं
अब फड़कती सी गजल कोई सुनाओ हम सफर उंघे हुए हैं अनमने हैं ।।

हमें लगता है, अपनी प्रकृति के प्रति उदासीन और बर्बर हैं। हम उसका जिस तरह से दोहन कर रहे हैं हमें उसके खतरे का एहसास ही नहीं है। विकास जब प्रकृति का बलिदान लेकर होने लगे तो समझ लीजिए ये कि ये विकास यात्रा विनाशलीला में तब्दील हो रही है। पिछले 40 सालों में जिस तरह मनुष्य ने विकास के नाम पर प्रकृति को नुकसान पहुंचाया है उसका साइड इफैक्ट अब मनुष्य के साथ ही अन्य प्राणियों के जीवन पर नजर आने लगा है। जोशी मठ इसका ताजा उदाहरण है। आदिशंकराचार्य की तपस्थली जोशीमठ की भूमि लगातार धंस रही है। मकान, होटल जमींदोज होने लगे हैं, ऐतिहासिक नृरसिंह मंदिर में भी दरारें आ गई हैं। अब तक 678 मकानों में दरारें आ चुकी हैं।
एक रिपोर्ट में तो यहां तक कहा जा रहा है कि नैनीताल शहर का भार भी अब अधिक हो रहा है। हम तरक्की के नाम पर अपना ही बेड़ा गर्ग कर रहे हैं।
जोशी मठ में बनी स्थिति के लिए कुछ प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं इनमें
1- एनटीपीसी की तपोवन-विष्णुगाड़ परियोजना की टनल का निर्माण, 2- शहर में ड्रेनेज की व्यवस्था न होना, 3- क्षमता से अधिक अनियंत्रित निर्माण कार्य, 4- अलकनंदा नदी में हो रहा भू-कटाव। भूजल स्तर गिरने से जमीन की भीतरी परत जहां पानी इकठ्ठा होता है, वह सिकुड़ रही है और जमीन बैठती जा रही है इसलिए भूजल के अत्यधिक दोहन से जमीन के धंसने का खतरा बना रहता है।
भारत का उत्तरी क्षेत्र का मैदानी इलाका बेहद उपजाऊ है। हालांकि इस उपजाऊ क्षेत्र में मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। जमीन के नीचे का जल स्तर तेजी से खत्म होता जा रहा है। नासा के अनुसार, पिछले दशक में उत्तरी भारत का भूजल 8.8 करोड़ एकड़-फिट कम हो चुका है। सीमेंट और कांक्रीट के निर्माण कार्यों में रेत का उपयोग अपरिहार्य है। आबादी बढऩे के साथ-साथ आवास, स्कूल, अस्पताल, सड़क हों या पेयजल भंडारण से जुड़ी जरूरतें सभी के निर्माण में रेत, सीमेंट, कांक्रीट आदि की मांग तेजी से बढ़ी है। नदियों से निकलने वाली रेत की मांग प्राथमिकता में है, इसलिए भारत सहित दुनिया भर में ही नदियों से रेत खनन अत्यधिक होने लगा है।
दोस्तों रेत का वैध और अवैध खनन छत्तीसगढ़ में भी बहुत बड़े पैमाने पर होता है। यहां की प्रमुख नदियों में पोकलेन और जेसीबी जैसी मशीने लगाकर खनन किया जाता है। गुजरात में साबरमती नदी में रेत का इतना अवैध खनन होता रहा है कि अहमदाबाद, साबरकांठा, गांधीनगर जिलों में इन पर निगाह रखने के लिए 2018 में ड्रोन से निगरानी तक की गई। रेत खनन से नदियों की पारिस्थितिकीय प्रणालियों के साथ-साथ तटीय क्षरण, नदी तलहटियों की भू-आकृतियों की संरचनाओं में बदलाव, मछलियों, घडिय़ालों, कछुओं जैसे जलजीवों के आवागमन व प्रजनन क्षेत्रों में अवरोध और आत्मरक्षा के लिए उनके छुपने के क्षेत्रों पर संकट भी आ जाता है।
गंगा की ही बात लें तो वैज्ञानिकों ने ही यह पुष्ट किया है कि रेत खनन से ऐसे कछुए, जिन्हें एक बार सफाई के लिए गंगा में डाला गया था अब लगभग समाप्त हो गए हैं, ये कचरे को नष्ट करने में मददगार होते थे। नदियों की वनस्पतियां भी रेत खनन से प्रभावित होती है। रेत कई तरह के प्रदूषण से बचाने में मददगार होता है, इससे पानी की गुणवत्ता ठीक रखने में भी मदद मिलती है। कुछ हद तक अवैध रेत खनन को कम करने के लिए कर्नाटक व तमिलनाडु जैसे राज्य लाखों टन रेत आयात कर उपभोक्ता व उद्योगों को दे भी रहे हैं। जोशीमठ की ऐतिहासिक महत्ता इस जन-विश्वास में निहित है कि आधुनिक हिन्दू धर्म के महानतम धर्मगुरु माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने यहाँ शहतूत के एक पेड़ के नीचे समाधिस्थ रहकर दिव्य ज्ञान हासिल किया था। इसी कारण इसे ज्योतिर्धाम कहा गया। यह विशाल पेड़ आज भी फलता-फूलता देखा जा सकता है और इसे कल्पवृक्ष का नाम दे दिया गया है। फि़लहाल इस वृक्ष से लगा मंदिर भी टूट चुका है और वह गुफा भी ध्वस्त हो चुकी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां शंकराचार्य ने साधना की थी।
कऱीब आधी शताब्दी पहले गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चन्द्र मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक कमेटी ने 1976 में प्रकाशित की गई अपनी एक रिपोर्ट में चेताया था कि जोशीमठ के इलाके में अनियोजित विकास किया गया तो उसके गंभीर प्राकृतिक परिणाम होंगे।
प्रसंगवश शिवप्रसाद जोशी की पंक्तियां –
लोग कहते हैं दुनिया का अंत इस तरह होगा कि
नीति और माणा के पहाड़ चिपक जाएंगे
अलकनंदा गुम हो जाएगी बफऱ् उड़ जाएगी
हड़बड़ा कर उठेगी सुंदरी
साधु का ध्यान टूट जाएगा
हाथी सहसा चल देगा अपने रास्ते।।

 

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