Indian federalism भारतीय संघवाद के विभिन्न पहलुओं पर गंभीर चिंतन एवं विद्वानों का दृष्टिकोण

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Indian federalism विकास कुमार

Indian federalism भारतीय शिक्षण में कला-कौशल के विकास का निर्णीत आधार वाद-विवाद के अनुक्रम से विकसित होकर नए चिंतन में नवाचार शैली को सन्निहित करते हुए वैचारिकी की गतिशीलता में चेतना का संचार करता था । परंतु कहने का आशय यह नहीं है की मुकम्मल भारत की ज्ञान शैली का संरचनात्मक और चेतनशील प्रगति का अनुप्रायोगिक प्रवाह-प्रसार इसी समायोग तथा संभरण पर निर्भर था ।

Indian federalism यह एक विचारों के अन्वेषण,अन्वीक्षण तथा शोध के विकसित स्वरूप और ज्ञान के नए मार्गों को उदीयमान करनें में सहयोगी एवं सार्थक होती थी । वर्तमान में बौद्धिक जगत में इसके स्वरूप का विन्यास संगोष्ठियों और सेमिनारों ने ले लिया। समूचे विश्व में किसी विषय पर विद्वानों के विचार,समकालीन अवधारणा तथा उस विषय की भविष्योन्मुखी प्रासंगिकता के स्वरूप को समझने के लिए संगोष्ठी बेहतर समायोजन होता है,परंतु उसका स्वरूप अकादमिक होना चाहिए जिसमें विचारों का प्रवाह विषयांतर न हो और नए तर्कों के साथ आलोचनात्मक दृष्टिकोण को सरोकार करते हुए अपने चयनित विषय का चिंतन प्रस्तुत करना चाहिए ।

ऐसे बौद्धिकत से सम्पन्न विचार विमर्श बहुत काम संगोष्ठियों में होता है ,परंतु कुछ ऐसे संस्थान और विश्वविद्यालय है जो ऐसे कार्यक्रमों में विचार-विमर्श के अकादमिक स्वरूप को अपनाते हुए कार्यक्रम को सम्पन्न करते हैं । ऐसा ही एक कार्यक्रम मध्य-प्रदेश समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद में सम्पन्न हुआ जिसमें प्रारंभ से लेकर अवसान तक बौद्धिक अनुशीलन होता रहा ।

यह कार्यक्रम 10-11 नवंबर को संस्थान के निर्देशक प्रोफेसर यतीन्द्र सिंह सिसोदिया के संयोजन में तथा उदय सिंह राजपूत ( सहायक प्रायाध्यक,अमरकंटक विश्वविद्यालय) और पुष्पेंद्र मिश्र के समन्वयन में सम्पन्न हुआ था । इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में निर्देशक से परिचित एवं संस्थान के अध्यक्ष प्रोफेसर गोपाल शर्मा ने कहा कि यहाँ अकादमिक विमर्श और चिंतन में नवाचार की भावना को प्रोफेसर यतीन्द्र सिंह सिसोदिया बहुत ध्यान रखते हैं जो समापन सत्र तक दिखी ।

इस समीक्षा में केवल कुछ ही विद्वानों के दृष्टिकोण को संकलित किया जा सकता है जो भारतीय संघवाद के समकालीन स्वरूप को समझने में परिणामकारी सिद्ध होंगे । उद्घाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित प्रोफेसर रेखा सक्सेना ( प्राध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय राजनीति विज्ञान विभाग) जिन्होंने विभिन्न देशों में सम्पन्न संगोष्ठियों में संघवाद से संबंधित विषयों पर शोध पत्र का वचन किया है और संघवाद विषय के विभिन्न आयामों को लेकर शोध पत्र, आर्टिकल और पुस्तकें भी लिखी हैं जिनका इस विषय पर वृहद और व्यापक अनुभव है ।

उनके चिंतन के अनुशीलन से केवल भारतीय संघवाद का स्वरूप ही नहीं प्रभावित हुआ बल्कि विश्व के कई देशों ने उनके विचारों से अपने संघीय संरचना में परिवर्तन भी किया है । नेपाल के संविधान में संघात्मक स्वरूप के ढांचे को निर्मित करनें में उनके विचारों का योगदान रहा है । किसी देश काल की परिस्थितियों के आधार पर ही संघवाद की संरचना निर्धारित होनी चाहिए ।

भारतीय संघवाद का आधार केवल शक्तियों के विभाजन पर नहीं टिका है इसके स्वरूप और गतिशीलता के अनुभावजन्य प्रमाणित आयाम यह निर्देशित करते हैं की यह राज्यों और केंद्रों के मध्य सहकार की भावना को उत्प्रेरित करता है । ऐसे विमर्श के पश्चात प्रोफेसर यतीन्द्र के विचारों को समावेत करना आवश्यक है जिनका चिंतन आलोचनात्मक था कुछ ही शब्दों में संघवाद के घटित,विघटित,प्रचलित और सुचरित सभी प्रकार के विचारों का समावेश किया । संघवाद का भारतीय स्वरूप और उसके सम्पूर्ण मानकों की विश्लेषणात्मक व्याख्या उनके विचारों का सार और प्रवाह रहा ।

विषय के इसी संदर्भ में प्रोफेसर गोपाल शर्मा के विचार वर्तमान विकसित होते अनुक्रमों का समायोजन करते हुए । ऐतिहासिक मापदंडों के अनुसार,भारतीय संघवाद की व्याख्या को अनुप्रायोगिक वैचारिकी से जोडक़र विश्लेषित किया । भारतीय संघवाद के मानक,मापदंड और भविष्य के मार्ग इन सभी व्याख्यानों से स्पष्ट हो गए थे ,जिनके द्वारा संदर्भित प्रतिमानों नें नए आयाम को विकसित किए । यही विमर्श का समायोजन विषय के पहलुओं को समझने में और समकालीन चिंतन के प्रतिरूप को प्रतिरूपित किया ।

इस संगोष्ठी में विषय के उप-विषय के आधार पर तकनीकी सत्र विभाजित थे जिसमें प्रथम तकनीकी सत्र की शुरुवात अध्यक्षीय उदबोधन के पश्चात प्रोफेसर सरोज कुमार वर्मा जी के शोध पत्र से हुआ जिनके शोध पत्र का शीर्षक था ‘भारत में सहकारी संघवाद: मिथक एवं यथार्थ’ अपनी भूमिका में उन्होने कहा की संघवाद का आधार शक्तियों के विभाजन है साथ ही केंद्र-राज्य संबंधों को समन्वय और सामंजस्य बनकर अपनी नीतियों का संचालन करना चाहिए । यही वक्तव्य डॉ. बिभूति नें भी अपने विचारों में समावेश करते हुए विचारों में नवाचार को प्रतिपादित करते हुए 40 से अधिक भागों में संस्कृति ,सभ्यता और भौगोलिक आधार को प्रस्तुत करते हुए राज्यों को विभाजित करनें कि सिफारिश की ।

इन विचारकों के अतिरिक्त 36 से अधिक शोध पत्रों में समकालीन संदर्भ और संगोष्ठी से संबंधित उप-विषयों पर सार्थक चर्चा हुयी । जिसमें भारतीय संविधान और सांविधिक आयामों का भी संकलन किया गया जैसे -भारतीय संघवाद का प्रावधान संविधान में नहीं है । सहकारी संघवाद के विकसित स्वरूप की चर्चा । विभिन्न परिषदों और आयोगों की भी चर्चा हुयी ।

2014 के बाद सहकारी संघवाद का स्वरूप अत्यंत विकसित हुआ जिसमें यह प्रावधान किया गया की कमजोर राज्यों को भी प्रगति का अवसर दिया गया । तृतीय विश्व के देशों ने इस अवधारणा को क्यों अपनाया? साथ ही प्रतिस्पर्धी संघवाद की रूपरेखा कि व्याख्या और संविधान के बुनियादी ढाँचे और योजनाओं की भी चर्चा को विचार-विमर्श का माध्यम बनाया गया ।

ऐसे सफल और प्रगतिशील संगोष्ठियों की भारत में अकादमिक उत्कर्ष के संयोजन होना अत्यंत आवश्यक है जिससे केवल राजनीतिक,अकादमिक और आर्थिक प्रतिमान ही विकसित नहीं होंगे अपितु मानवीय मूल्यों में उत्कृष्टता देखनें को मिलेगी, क्योंकि ऐसे शुद्ध विचार-विमर्श से समन्वय और सामंजस्य की भावना विकसित होती है जिससे अकादमिक जगत बौद्धिक बनता है और शोधार्थी पूर्वाग्रह को छोडक़र सही रह में शोध कार्य करते है ।

( लेखक-केन्द्रीय विश्वविद्यालय ,अमरकंटक में रिसर्च स्कॉलर हैं एवं राजनीति विज्ञान विषय में गोल्डमेडलिस्ट हैं)

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