Google-Facebook : ऑस्ट्रेलिया की तरह गूगल-फेसबुक पर कसनी है नकेल, तो पहले करना होगा एक काम, वरना ये नहीं आएंगे काबू में

Google-Facebook : ऑस्ट्रेलिया की तरह गूगल-फेसबुक पर कसनी है नकेल, तो पहले करना होगा एक काम, वरना ये नहीं आएंगे काबू में

Google-Facebook : ऑस्ट्रेलिया की तरह गूगल-फेसबुक पर कसनी है नकेल, तो पहले करना होगा एक काम, वरना ये नहीं आएंगे काबू में

 

Google-Facebook : नई दिल्ली. 2 साल पहले ऑस्ट्रेलिया में एक कानून पारित हुआ था जिसका मकसद यह था कि गूगल और फेसबुक जैसा कंपनियां विज्ञापन से आ रहे राजस्व का हिस्सा मीडिया कंपनियों के साथ बांटें. इस कानून का नाम न्यूज मीडिया बार्गेनिंग कोड (News Media Bargaining Code) है. इस कानून की वजह से काफी समय

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Google-Facebook : तक फेसबुक ने ऑस्ट्रेलिया में अपनी न्यूज सर्विस बंद कर दी थी. गूगल और फेसबुक दोनों इसका विरोध कर रहे थे. गूगल ने तो यहां तक कह दिया था कि वह ऑस्ट्रेलिया के बाजार से ही खुद को हटा लेंगे. ये बातें ऑस्ट्रेलियाई सांसद पॉल फ्लेचर ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कहीं.

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जिस समय यह कानून लाया गया उस वक्त फ्लेचर ऑस्ट्रेलिया के कम्युनिकेशन मंत्री थे. इस कानून में कहा गया था कि न्यूज कंपनियों के पास गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों से ऐड रेवेन्यू को लेकर मोल भाव करने की ताकत होनी चाहिए. ऑस्ट्रेलिया सरकार का मानना था कि जब ये प्लेटफॉर्म अपने विज्ञापन आगे बढ़ाने के लिए इन न्यूज

कंपनियों के कॉन्टेंट का सहारा ले रहे हैं तो उन्हें रेवेन्यू भी शेयर करना चाहिए. ऑस्ट्रेलिया में इस विषय के संबंध में प्रतिस्पर्धा उपभोक्ता आयोग ने रिपोर्ट तैयार की और कहा कि सबसे जरूरी काम यह करना होगा कि एक बार्गेनिंग कोड बनाया जाए. दोनों कंपनियां आपस में बैठकर रेवेन्यू की हिस्सेदारी तय करें. अगर वे ऐसा करने में असफल रहते हैं तो एक सरकारी मध्यस्थ इस बीच में आकर कीमत तय कर सकता है.

क्यों पड़ी इसकी जरूरत
ऑस्ट्रलियाई सरकार के अनुसार, गूगल और फेसबुक का पारंपरिक न्यूज प्लेटफॉर्म के डिजिटल ऐड्स पर बहुत अधिक प्रभाव है. वे इन मीडिया आउटलेट्स के कॉन्टेंट का इस्तेमाल करते हैं और उसकी ऐवज में अपने विज्ञापन आगे बढ़ाते हैं. वह कॉन्टेंट जिनके लिए पैसा मीडिया हाउस ने दिया है, लेकिन उसके बल पर कमाई गूगल व फेसबुक

कर रहे हैं. इससे मीडिया कंपनी के राजस्व पर असर होता है और पत्रकारिता के मूल्य खतरे में आने लगते हैं क्योंकि मीडिया कंपनी के पास सही पत्रकारिता को बढ़ावा देने के लिए पैसों की कमी होने लगती है.

क्या भारत में ऐसा संभव?
फ्लेचर से पूछा गया कि क्या भारत में ऐसा संभव है तो उन्होंने कहा कि इसके लिए सबसे पहले आर्थिक सबूत जुटाने की जरूरत है. जैसा ऑस्ट्रेलिया ने किया था. उन्होंने कहा कि ऑस्ट्रेलिया में बार्गेनिंग कोड के जरिए सरकार गूगल-फेसबुक और मीडिया कंपनियों के बीच व्यापारिक सौदों को बढ़ावा देना चाहती है. उन्होंने कहा गूगल-फेसबुक इस

तरह की डील ऐसी किसी जगह पर नहीं करेगी जहां उसकी मार्केट में मौजूदगी बहुत अधिक नहीं है. बकौल फ्लेचर, ये मामला आर्थिक पहलुओं पर ही आधारित है. अगर इसे भारत में भी लागू किया जाना है तो पहले ये सुनिश्चित करना होगा कि आमने-सामने आकर कमर्शियल डील करने के लिए तैयार हों.

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