-सुभाष मिश्र
भारत में दीपावली केवल एक त्योहार नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक ऊर्जा का उत्सव है। अंधकार पर प्रकाश, असत्य पर सत्य और निराशा पर उम्मीद की विजय का प्रतीक। लेकिन आज जब हम अपने घरों में दीप जलाते हैं तो यह सवाल भी जल उठता है कि क्या वास्तव में हमारे समाज में अंधेरा मिट रहा है या बस सजावट की रोशनी के नीचे वह और गहराई से छिप गया है?
इस साल की दीपावली ऐसे समय में आई है, जब देश और समाज दोनों ही असमंजस के दौर से गुजर रहे हैं। महंगाई अपनी चरम सीमा पर है, रोज़मर्रा की चीज़ें जैसे तेल, दाल, सब्जिय़ां और मिठाइयाँ आम उपभोक्ता की पहुंच से दूर होती जा रही हैं। बाज़ारों में रौनक है, लेकिन संपन्न और समृद्ध लोगों के कारण। आम आदमी की जेबों में हलचल नहीं है। निम्न वर्ग और निम्न मध्य वर्ग के ज्यादातर घरों में उत्सव का बजट सिमट गया है और चमक-दमक का अभिमान अब क्रेडिट कार्डों ने संभाल लिया है। यह दीपावली दिखावे की विकसित अर्थव्यवस्था और वर्ग असमानता की हकीकत का आइना बन चुकी है।
सामाजिक दृष्टि से देखें तो इस बार त्योहार के साथ तनाव की लकीरें भी उभर आई हैं। सोशल मीडिया पर हमारा त्यौहार, तुम्हारा त्यौहार जैसी बहसें दीपावली के मूल उद्देश्य और आधार सूत्र-आपसी भाईचारा और सहिष्णुता के दीपों की लौ को मंद कर रही है। त्यौहार, जो मिलन और साझा संस्कृति के प्रतीक थे, अब पहचान और मतभेद के आईने बनते जा रहे हैं। दीपावली का असली अर्थ तभी पूरा होगा जब घर-आंगन के साथ मन भी प्रकाशित हों, जब दीये केवल घरों में नहीं, विचारों में जलें। दीपावली पर घर की सफाई के साथ-साथ मन में जमा असहिष्णुता का कचरा भी साफ होना चाहिए। संकीर्ण विचारों से मन के कोने अंधेरे में डूबे हैं। एक दीपक वहां साफ-स्वच्छ और प्रगतिशील विचारों का जलाना चाहिए। साझा संस्कृति की मुंडेर पर जलने वाला दिया मन के अंधेरे को उजास से भर देगा।
पर्यावरण के संदर्भ में भी दीपावली एक चुनौती बन चुकी है। प्रदूषण का स्तर हर साल नई ऊंचाइयों को छूता है। पटाखों की जहरीले धुएं और तेज आवाज़ में न सिर्फ हवा दम तोड़ती है, बल्कि पक्षियों की उड़ान और बच्चों की साँसें भी। इन बातों पर भी विचार करना होगा कि क्या कारण है कि दीपावली का त्यौहार पटाखों के शोर और अमीरी के प्रदर्शन का पर्याय होता जा रहा है। बाजार में ऐसे पटाखे आ रहे हैं जो प्रतिबंधित हैं। तीखे और कर्कश शोर और जहरीले धुएं से भरे पटाखे बाजार में बेधड़क बिक रहे हैं। खरीदने वाले बहुत उत्साह से उसे खरीदते हैं बगैर इस बात की परवाह किए कि इससे पर्यावरण बेहद दूषित होता है। हवा में जहर फैलता है। शायद हमें यह स्वीकारना होगा कि आधुनिक युग में रोशनी का मतलब अब सिर्फ दीपक नहीं, बल्कि जि़म्मेदारी भी है, पर्यावरण के प्रति, समाज के प्रति और आने वाली पीढिय़ों के प्रति।
राजनीतिक परिदृश्य में भी दीपावली की यह रोशनी कई छायाओं के बीच जल रही है। हर दल अच्छे दिन की मशाल लेकर चलता है, पर आम आदमी की गली में अंधेरा जस का तस है। बेरोजग़ारी, भ्रष्टाचार और असमानता की दीवारें बढ़ती जा रही हैं। दीपावली हमें यह याद दिलाती है कि असली अंधकार बाहर नहीं, व्यवस्था के भीतर है और जब तक ईमानदारी और आम आदमी के प्रति प्रतिबद्धता की लौ नहीं जलती, तब तक कोई रोशनी स्थायी नहीं हो पाएगी।
फिर भी दीपावली उम्मीद का पर्व है। यह बताती है कि हर लंका में एक दीप जल सकता है। हर घर में एक सच्ची मुस्कान लौट सकती है, बशर्तें हम इस रोशनी को भीतर तक उतरने दें। हमें दीपावली को केवल रोशनी का उत्सव नहीं, बल्कि चेतना का पर्व बनाना होगा जहां हम खुद से सवाल करें कि क्या हम वास्तव में रोशनी फैला रहे हैं या केवल अंधेरे को सजाकर रख रहे हैं।
इस बार जब हम दीप जलाएं तो यह संकल्प लें कि रोशनी हमारे भीतर भी जले विचारों में, व्यवहार में और समाज में। तभी दीपावली सचमुच ‘दीपों का त्योहार कहलाएगी, न कि केवल रोशनी की एक रात।