Expectations From Murmu : महामहिम मुर्मू से आदिवासियों की उम्मीदें….
भारतीय लोकतंत्र की यही तो खासियत है। यहां लोक की सेवा के लिए तंत्र की स्थापना की गई है। यही खासियत आज संसद में उस वक्त दिखाई भी दी।

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जब एक आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू ने भारत राष्ट्र के 15 वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण किया।
संयोग देखिए द्रौपदी मुर्मू शिवभक्त हैं, और आज सावन के पावन महीने का सोमवार है।
कितना बेहतरीन संयोग है। शपथ ग्रहण करने से पूर्व वे राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर जाकर उनको सादर नमन किया। भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति होने का गौरव हमारी वर्तमान प्रेसीडेंट द्रौपदी मुर्मू को हासिल है।

बताया तो ये भी जा रहा है कि राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू लहसुन और प्याज तक नहीं खाती हैं। उनकी रसोई में पखाल और सजना साग बनेगा।
एक गरीब और अभाव ग्रस्त आदिवासी परिवार में जन्मीं द्रौपदी मुर्मू का अतीत बहुत पीड़ादायक रहा है। उनको उनके माता -पिता ने तब स्कूल भेजना शुरू किया था।
जब महिलाओं को घर की दहलीज लांघने की इजाजत तक नहीं मिलती थी। ऐसे वक्त में उनके परिजनों ने ये साहस दिखाया। अपनी बेटी को उन्होंने स्कूल की राह दिखाई।
पढ़ाई करने के बाद वे अध्यापिका बन गईं। शादी हुई 2 बच्चे भी हुए मगर समय के साथ ही साथ पति और दोनों बच्चों का साथ छूट गया। कुल मिलाकर वे अकेली रह गईं।

इसके बाद भी द्रौपदी मुर्मू ने हिम्मत नहीं हारीं। डिप्रेशन से उबरने के लिए उन्होंने योग और प्राणायाम का सहारा लिया। अब वे भारत की महामहिम राष्ट्रपति हैं।
समाज की आखिरी सीढ़ी पर खड़े आदिवासियों ने इस मौके पर जमकर जश्न मनाया। जंगलों में मांदर की थाप पर लोग जमकर नाचे।
वहीं उड़ीसा के आदिवासी अंचलों में तो पूरा उत्सव जैसा माहौल देखने को मिला। जश्न हो भी क्यों न ? आखिर उनकी द्रौपदी मैडम राष्ट्रपति जो बन गई हैं।
अब जब किसी समाज का कोई व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद पर आसीन होगा तो लोगों की उम्मीदें भी उससे जुड़ी हो सकती हैं।
आदिवासी समाज को अपने राष्ट्रपति से ऐसी ही उम्मीदें हैं।
सदियों से उपेक्षित रहे आदिवासी समाज की अपने राष्ट्रपति से यही उम्मीद है कि उनके सेंगल अभियान को मजबूती मिलेगी। असल में सेंगल अभियान 5 राज्यों के 250 जिलों में चलाया जा रहा है। उनकी कोशिश तो ये भी है कि उनके धर्म को सरना की मान्यता दी जाए।
आदिवासियों की अपेक्षाएं तो ये भी हैं कि आगामी जनगणना में उनकी गिनती सरना बताकर ही की जाए।
इसके अलावा सरकार की जो भी योजनाएं आदिवासी अंचलों पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। उनकी भी पहुंच अब आदिवासी अंचलों तक होनी चाहिए।

जल-जंगल और जमीन की लड़ाई को भी अब एक नई धार मिलेगी। वैसे भी हमारे देश में आदिवासियों को राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र होने का गौरव हासिल है।
इसके बाद भी गाहे-बेगाहे आदिवासी अंचलों से ऐसी-ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं। जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती हैं।
दवाओं के अभाव में मरते आदिवासी समाज के लोग। तो कहीं बांस के भरोसे अस्पताल तक का सफर तय करते समय तेज बहते नाले को पार कर अस्पताल तक पहुंचने की जद्दोजहद।
नक्सलवाद प्रभावित इलाकों में आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर बताकर उनकी नृशंस हत्या कर देने की बढ़ती घटनाएं। ये घटनाएं किसी के भी दिल को झकझोरने के लिए काफी हैं।
हमारी राष्ट्रपति को आदिवासियों की तकलीफों का अहसास भी है। उनको आदिवासियों की जरूरतों का भी पता है। इसके बाद अगर कुछ बचता है तो वो है
इन समस्याओं के समाधान पर काम करना। ऐसे में अब इन तबके के लोगों को एक आस सी जगती दिखाई दे रही है।
भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को सीमित अधिकारों में बांध दिया गया है।
केंद्र सरकार का समर्थन राष्ट्रपति को मिला हुआ है। ऐसे में अगर महामहिम मुर्मू दूरदर्शिता का परिचय देंगी तो वे सदियों से उपेक्षित आदिवासियों के लिए एक मिसाल कायम कर सकेंगी।
उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के बेहद पिछड़े वर्ग को लंबे अरसे बाद एक उम्मीद जगी हैं। तो सरकार को चाहिए कि कम से कम उस तबके को उसके हिस्से का लाभ जरूर दिलाए।