Election Commission बट्टेखाते में जाती चुनाव आयोग की साख!

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अजीत द्विवेदी

Election Commission बट्टेखाते में जाती चुनाव आयोग की साख!

Election Commission लगता है चुनाव आयोग ने अपनी साख की चिंता छोड़ दी है। अब तक चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा और आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में विपक्षी नेताओं के प्रति दिखने वाले पूर्वाग्रह से ही आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठते थे लेकिन अब बड़े नीतिगत मामले को लेकर आयोग ने ऐसी पहल की है, जिससे उसकी साख पर बड़ा सवाल उठा है।

Election Commission चुनाव से पहले पार्टियों की ओर से किए जाने वाले वादों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई से आयोग ने अपने को अलग किया था। उसने सही स्टैंड लेते हुए हलफनामा दिया था और कहा था कि मुफ्त में चीजें या सेवाएं देने की पार्टियों की घोषणा एक सब्जेक्टिव मामला है इसलिए इसमें वह कुछ नहीं कर सकती है।

Election Commission लेकिन अचानक आयोग ने यू टर्न लिया और सभी पार्टियों को चिठ्ठी लिख कर कहा कि वे चुनावी वादा करने के साथ साथ यह बताएं कि उन वादों को पूरा करने के लिए उनके पास क्या योजना है और फंड कहां से आएगा।

Election Commission इस पर चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों से 19 अक्टूबर तक राय देने को कहा है। सवाल है कि आयोग को अचानक क्या सूझी, जो उसने इस तरह की चि_ी लिख दी? जब उसने सर्वोच्च अदालत में हलफनामा देकर खुद को इस मामले से अलग किया है तो अब चि_ी लिखने की क्या जरूरत है?

आयोग का काम स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करना है। उसका काम पार्टियों के घोषणापत्र में लिखी बातों का विश्लेषण करने या चुनावी वादों के लागू होने से होने वाले आर्थिक असर का आकलन करने की नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों के पास वित्तीय अनुशासन लागू करने का अपना सिस्टम है।

Election Commission  उन्हें पता है कि उनके राजस्व का क्या स्रोत है और उन्हें अपने राजस्व को किस तरह से खर्च करना है। अगर वित्तीय प्रबंधन या आर्थिक अनुशासन गड़बड़ाता है तब भी उसकी कोई जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर नहीं आयद होती है।

इसलिए आयोग को कतई इस बहस में नहीं पडऩा चाहिए कि कोई भी राज्य सरकार चुनावी वादे को पूरा करने के लिए फंड कहां से लाएगी।

हैरानी की बात यह है कि जिस दिन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेवड़ी कल्चर की बात कही और इसे देश के लिए खतरा बताया उस दिन से अलग अलग एजेंसियां और संवैधानिक संस्थाएं आगे बढ़ कर इस मुद्दे पर अपनी राय देने लगी हैं और राजनीतिक दलों को नसीहत देने लगी हैं। सुप्रीम कोर्ट में तो सुनवाई चल ही रही है उसी बीच देश के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक की ओर से नीति पत्र लिख दिया गया तो चुनाव आयोग ने पार्टियों को चिठ्ठी लिख दी।

Election Commission आयोग की चिठ्ठी से पहले स्टेट बैंक का नीति पत्र आया, जिसे उसके मुख्य आर्थिक सलाहकार सौम्य कांति घोष ने तैयार किया। उन्होंने लिखा कि पार्टियों की ओर से मुफ्त में चीजें बांटने की जो घोषणा की जा रही है उसका बड़ा आर्थिक असर राज्यों के राजस्व पर पड़ रहा है। उन्होंने पुरानी पेंशन योजना बहाली के खतरों के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि इससे राज्य दिवालिया हो सकते हैं।

स्टेट बैंक के नीति पत्र में सुझाव दिया गया कि मुफ्त की घोषणाओं का कुल खर्च राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद के एक फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए।

अब सवाल है कि चाहे सुप्रीम कोर्ट हो या भारतीय स्टेट बैंक हो या चुनाव आयोग हो, क्यों ये सारी संस्थाएं अचानक सक्रिय हो गई हैं? क्यों सबको राजनीतिक दलों की ओर से की जाने वाली घोषणाओं की चिंता सताने लगी है? क्या प्रधानमंत्री की ओर से जाहिर की गई राय की वजह से ये तमाम संस्थाएं सक्रिय हुई हैं?

इस मामले में दखल देने को उत्सुक दिख रही तमाम संस्थाओं की नीयत पर इसलिए सवाल उठ रहा है क्योंकि कोई भी संस्था इस मामले में वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार नहीं कर रही है। स्टेट बैंक और चुनाव आयोग को क्या इतनी बुनियादी समझ नहीं है कि भारत एक लोक कल्याणकारी राज्य है और इसमें राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने नागरिकों का ख्याल रखे?

भारत जैसे गरीब या अर्ध विकसित देश में करोड़ों नागरिक बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। अगर कोई सरकार उन्हें उनके रोजमर्रा की जरूरत की चीजें उपलब्ध कराती है तो उसे मुफ्त की सेवा कैसे कह सकते हैं? अगर किसी एजेंसी को ऐसा लगता है कि नागरिकों को मुफ्त या सस्ती बिजली देना या पीने का साफ पानी मुहैया कराना या बेरोजगारी भत्ता, वृद्धावस्था पेंशन आदि देना रेवड़ी कल्चर है और ऐसा नहीं किया जाना चाहिए तो उसकी समझदारी पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं।

दूसरा सवाल यह भी है कि कोई एजेंसी केंद्र सरकार की ओर से दी जाने वाली किसान सम्मान निधि पर सवाल नहीं उठा रही है। उज्ज्वला योजना के तहत मिलने वाले मुफ्त सिलिंडर का जिक्र नहीं किया जा रहा है। प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत आवास उपलब्ध कराने या शौचालय बनवाने के लिए पैसे देने का जिक्र नहीं किया जा रहा है। राशन की व्यवस्था के साथ साथ मुफ्त में पांच किलो अनाज बांटने की योजना का भी जिक्र नहीं किया जा रहा है।

क्या इन सारी योजनाओं से केंद्र सरकार के खजाने पर बोझ नहीं पड़ रहा है या इनसे केंद्र का वित्तीय अनुशासन नहीं बिगड़ रहा है? फिर क्यों नहीं चुनाव आयोग, स्टेट बैंक या दूसरी कोई एजेंसी आगे बढ़ कर इनका विरोध कर रही है? क्यों सिर्फ विपक्षी पार्टियों की ओर से होने वाली घोषणाओं का विरोध हो रहा है?

चुनाव आयोग को राज्यों की वित्तीय स्थिति की इतनी चिंता हो गई है कि वह पार्टियों को चि_ी लिख कर घोषणा करने से रोकना चाह रही है लेकिन उसे दिखाई नहीं दे रहा है कि किस तरह से जिन दो राज्यों- गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हैं वहां चुनाव से पहले हजारों करोड़ रुपए की योजनाओं का शिलान्यास या उद्घाटन हो रहा है।

दोनों राज्यों की सरकारें अपनी घोषणाएं अलग कर रही हैं और प्रधानमंत्री हर दूसरे-तीसरे दिन किसी न किसी राज्य में बड़ी योजनाओं का उद्घाटन, शिलान्यास कर रहे हैं। क्या आयोग को इसे भी रोकने की पहल नहीं करनी चाहिए? आयोग का काम यह सुनिश्चित करना है कि पार्टियों के बीच बराबरी का मैदान हो। लेकिन उलटा होता है।

जो सरकार में होता है वह मतदाताओं को लुभाने के लिए हजारों करोड़ रुपए की योजनाओं का उद्घाटन, शिलान्यास कर सकता है लेकिन जो विपक्ष में है वह नागरिकों को कुछ वस्तुएं और सेवाएं मुफ्त में देने की घोषणा नहीं कर सकता है!

कायदे से चुनाव आयोग हो या सुप्रीम कोर्ट हो उसे पार्टियों की घोषणाओं और वादों पर रोक लगवाने का प्रयास करने की बजाय पार्टियों को कानूनी रूप से बाध्य करना चाहिए कि वे जो वादे कर रहे हैं उसे लागू करें। संसद में यह कानून बनना चाहिए कि कोई पार्टी सरकार में आने के बाद अगर अपने घोषणापत्र में कही गई बात को नहीं लागू करती है तो उसका रजिस्ट्रेशन समाप्त किया जाएगा।

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