Election डॉ. सी.पी. राय
Election कल ही गुजरात और हिमाचल प्रदेश के साथ विभिन्न प्रदेशों के चुनाव परिणाम आए और एक दिन पहले दिल्ली नगर निगम के परिणाम भी जनता ने देखा। ये चुनाव राजनीतिक समीक्षको के लिए अध्ययन का विषय है तो दलों के लिए आत्मचिंतन का।
Election गुजरात में लगातार फिर भाजपा जीती है और पहले के रिकॉर्ड तोड़ कर जीती है पर उसके लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को दिल्ली छोडक़र दिन-रात एक करना पड़ा और किसी स्थानीय नेता की तरह रोज कई सभा करनी पड़ीं, अपने सम्मान का हवाला देना पड़ा, लंबे रोड मार्च निकालने पड़े तो मीडिया के सहयोग से चुनाव के दिन को भी प्रचार के लिए उपयोग किया गया। महाराष्ट्र की योजनाओं (उद्योग) को गुजरात ले जाकर उसका फायदा उठाया गया तो विरोधी दल मतदान के दूसरे दिन 5 बजे के बाद 16 या 18 लाख अधिक मतदान होने से लेकर तरह तरह के आरोप भी लगा रहे हैं। ईवीएम तो हर हारे हुए चुनाव का मुद्दा है ही।
Election मीमांसा इस बात की भी करनी होगी कि भाजपा की सिर्फ सीट ही नहीं बढ़ी पर पहले से 4 फीसद वोट भी बढ़ा और इसका पूरा श्रेय मोदी जी की मेहनत और रणनीति को तो देना ही होगा। क्योंकि एक खबर ये भी छाई रही कि आरएसएस ने इस चुनाव से दूरी बनाए रखा। हिमाचल का यूं तो अमेरिका की तरह इतिहास रहा है सरकार बदलने का, पर इस बार मोदी जी का ये नारा कि ‘बदलाव के भाव को अब बदलें’ अगर केंद्र का लाभ लेना हो, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का वहां पूरे समय कैंप करना और मंत्रियों के फौज के साथ आक्रामक अभियान चलाना इस प्रदेश के पहाड़ की सर्दी के भाजपा को गर्मी का एहसास करवा गया।
दूसरी तरफ कांग्रेस ने यहां प्रियंका गांधी को उतार दिया, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के अनुभव से सबक लेकर यहां के लिए रणनीति बनाई और स्थानीय मुद्दों के साथ पेंशन को मुद्दा बना कर एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ा। दिल्ली एमसीडी के परिणाम पर बड़ी बहस नहीं है क्योंकि वो मुफ्त में मिलने वाली चीजों का परिणाम है पर केजरीवाल की टोपी में एक कलगी तो और लग ही गई, जहां गुजरात के मत प्रतिशत ने आम आदमी पार्टी (आप) को राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता की तरफ पहुंचा दिया। उत्तर प्रदेश के उपचुनाव पर भी राजनीतिक दलों और समीक्षकों की निगाह थी। यहां शिवपाल सिंह यादव का साथ काम आया और अकेले उनके क्षेत्र से एक लाख से ज्यादा वोट की लीड मिली तथा मनोवैज्ञानिक वातावरण ऐसा बना कि मुख्यमंत्री योगी और उनकी पूरी फौज इस माहौल के आसपास भी नहीं पहुच सकी।
दूसरी तरफ खतौली में भाजपा का मजबूत मतदाता त्यागी समाज भाजपा के खिलाफ चला गया जिससे वहा भाजपा हार गई, जबकि रामपुर में सत्ता और प्रशासन ने वही किया जो लोक सभा उप चुनाव में किया था और जहां चुनाव आयोग अपील करता है कि वोट बढ़ाए। ओडिशा की बात करें तो वहां नवीन पटनायक ने अपना कब्जा बरकार रखा। हां, बिहार में भाजपा की जीत व्यापक गठबंधन के लिए सीख देकर गई है कि जातिगत चीजों के प्रति अति आग्रह बुरा भी साबित हो सकता है।
कुल मिलाकर ये चुनाव सभी दलों और नेताओं को अपने-अपने सबक देकर गया है। भाजपा को सबक है की राजनीतिक दल को दल ही रहने दें। इंसानों और कार्यकर्ताओं वाला दल जिसके पास दिल भी हो, भावनाएं भी और सरोकार भी वरना बहुत दिनों तक सिर्फ जुमलों, वादो और मीडिया की पीठ पर चढ़ कर नहीं दौड़ा जा सकता है।
कांग्रेस को तो काफी सबक लेने होंगे क्योंकि वो आज तक विपक्ष की धार और रणनीति से दूर है और लंबी सत्ता के खुमार से बाहर ही नहीं आ पा रही है। राहुल और प्रियंका को उत्तर प्रदेश के लिए वही रवैया अपनाना होगा जो मोदी जी ने गुजरात के लिए अपनाया और अपने पुराने तौर-तरीकों में व्यापक परिवर्तन करना ही होगा।
उत्तर प्रदेश में फिलहाल समाजवादी पार्टी ही दूसरी पार्टी है पर पिछले चुनाव में सीधे आमने-सामने का चुनाव हो जाने और उसी आधार पर वोट पडऩे के बावजूद वो सरकार के खिलाफ की जनता को खुद से नहीं जोड़ पाई और उसके लिए अखिलेश यादव की अपनी कमजोरियां, आत्ममुग्धता, अति आत्मविश्वास इत्यादि कई कारक जिम्मेदार हैं और अब जल्दी उसे उतना अच्छा चुनाव मिलता नहीं दिख रहा है बशर्ते वो खुद में व्यापक बदलाव न ला दे और व्यापकता न अपना ले।
उसे अपने खास लोगों को भी सिखाना होगा कि उनका अहंकार या बुरी भाषा और व्यक्तिगत आक्रामकता पार्टी को नुकसान करती है। कुल मिला कर परिश्रम, समर्पण, विनम्रता, जन के लिए सहजता और स्वीकार्यता ही लोकतंत्र का हथियार है।