-सुभाष मिश्र
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 22 जून 2025 को छत्तीसगढ़ के रायपुर में नक्सलवाद के उन्मूलन को लेकर एक महत्वपूर्ण समीक्षा बैठक की, जिसमें छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड, और ओडिशा के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने भाग लिया। शाह ने स्पष्ट रूप से नक्सलियों के साथ किसी भी तरह की बातचीत से इनकार करते हुए उन्हें हथियार डालकर मुख्यधारा में शामिल होने की अपील की और 31 मार्च 2026 तक देश को नक्सलवाद से पूरी तरह मुक्त करने का लक्ष्य दोहराया। उन्होंने यह भी कहा कि इस बार मानसून के दौरान भी नक्सलियों के खिलाफ अभियान जारी रहेंगे, जिससे उन्हें ‘चैन की नींद’ नहीं मिलेगी।
हालांकि, नक्सलियों के हमले अभी भी जारी हैं, जिससे यह सवाल उठता है कि क्या यह समस्या केवल सैन्य कार्रवाई से हल हो सकती है, या बातचीत और अन्य उपाय भी आवश्यक हैं। इस बारे में अलग-अलग राय है जो लोग नक्सलवाद की जटिलताओं से वाकिफ़़ हैं उन्हें लगता है की बातचीत का रास्ता भी खुला रखना चाहिए। नक्सलवाद भारत के सबसे पुराने और जटिल सशस्त्र विद्रोहों में से एक है, जो 1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ। यह समस्या सामाजिक-आर्थिक असमानता, आदिवासी समुदायों के शोषण, और सरकार की नीतियों के प्रति असंतोष से उपजी है। वर्तमान में, नक्सलवाद मुख्य रूप से छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के आदिवासी क्षेत्रों तक सीमित है, लेकिन इसकी जड़ें गहरी हैं। यदि हम वर्तमान स्थिति की बात करें तो हाल के वर्षों में नक्सलवाद का प्रभाव कम हुआ है। गृह मंत्री शाह के अनुसार, नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 12 से घटकर 6 हो गई है। 2025 में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में 50 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें 14 पर 68 लाख रुपये का इनाम था। शाह ने दावा किया कि पिछले कुछ वर्षों में 400 से अधिक नक्सलियों को मार गिराया गया है। इसके बावजूद, नक्सली हमले जारी हैं। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमले और आईईडी विस्फोट अभी भी हो रहे हैं। यह दर्शाता है कि सैन्य दबाव के बावजूद नक्सलवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
गृह मंत्री अमित शाह ने सैन्य कार्रवाई को प्राथमिकता दी है और बातचीत की संभावना को खारिज कर दिया है। इसके पक्ष में बहुत से तर्क हैं जैसे हाल के वर्षों में सुरक्षा बलों को मिली सफलता है। पिछले डेढ़ साल में छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साय सरकार ने नक्सल विरोधी अभियानों को तेज किया है। शाह ने इन प्रयासों की सराहना की, जिसमें सटीक खुफिया जानकारी और सुरक्षा बलों के पराक्रम ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सरकार की आत्मसमर्पण नीति के तहत नक्सलियों को हथियार छोडऩे और मुख्यधारा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। बीजापुर में 50 नक्सलियों का आत्मसमर्पण इसका उदाहरण है। पहली बार, सुरक्षा बल मानसून के दौरान भी अभियान जारी रखेंगे, जो नक्सलियों के लिए पारंपरिक रूप से सुरक्षित समय रहा है। यह रणनीति नक्सलियों पर दबाव बढ़ा सकती है। गृह मंत्री अमित शाह ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने की बात की, जैसे छत्तीसगढ़ सरकार की ‘नियद नेल्ला योजना, जो नक्सल प्रभावित बच्चों को शिक्षा और मुख्यधारा से जोड़ रही है।
इस संबंध में विपक्ष का तर्क है कि सैन्य कार्रवाई से नक्सलियों की संख्या और प्रभाव कम हुआ है, लेकिन यह समस्या की जड़ों—जैसे गरीबी, शिक्षा की कमी, और आदिवासी समुदायों के शोषण—को संबोधित नहीं करती। नक्सली इन मुद्दों का लाभ उठाकर नए सदस्य भर्ती करते हैं। सैन्य अभियानों में कभी-कभी निर्दोष आदिवासियों को नुकसान पहुंचता है, जिससे स्थानीय समुदायों में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता है। उदाहरण के लिए, छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ों में नागरिक हताहत होने की घटनाएं सामने आई हैं।नक्सलवाद एक विचारधारा भी है, और केवल सैन्य दबाव से इसे पूरी तरह खत्म करना मुश्किल है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बनी रहेंगी, नक्सलवाद का खतरा बना रहेगा।
शाह ने नक्सलियों के साथ बातचीत की संभावना को खारिज कर दिया है, लेकिन कई विशेषज्ञ और सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि बातचीत और समग्र दृष्टिकोण नक्सलवाद को खत्म करने में अधिक प्रभावी हो सकता है। आंध्र प्रदेश में 2004 में नक्सलियों के साथ बातचीत की कोशिश की गई थी, हालांकि यह असफल रही। फिर भी, बातचीत ने कुछ नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने में मदद की थी। इसी तरह, मिजोरम और नगालैंड जैसे क्षेत्रों में सशस्त्र विद्रोहों को बातचीत के माध्यम से हल किया गया नक्सलवाद का मूल कारण गरीबी, भूमि अधिकारों की कमी, और आदिवासी समुदायों का शोषण है। बातचीत के माध्यम से इन मुद्दों को संबोधित किया जा सकता है, जैसे भूमि सुधार, शिक्षा, और रोजगार के अवसर प्रदान करना। बातचीत से आदिवासी समुदायों में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ सकता है, जो वर्तमान में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच फंसे हुए हैं। सैन्य अभियानों में नक्सलियों के साथ-साथ सुरक्षा बलों और नागरिकों की भी जान जाती है। बातचीत से इस मानवीय लागत को कम किया जा सकता है।
बातचीत के खिलाफ लोगों का तर्क है कि नक्सली अक्सर हिंसा को अपनी रणनीति का हिस्सा मानते हैं और बातचीत को कमजोरी के रूप में देख सकते हैं। 2004 की असफल वार्ता इसका उदाहरण है। बातचीत की शुरुआत से सुरक्षा बलों का मनोबल प्रभावित हो सकता है, जो लंबे समय से नक्सलियों के खिलाफ लड़ रहे हैं। सरकार के लिए नक्सलियों के साथ बातचीत करना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा हो सकता है, क्योंकि इसे च्च्नरम रुखज्ज् के रूप में देखा जा सकता है। नक्सलवाद को खत्म करने के लिए केवल सैन्य कार्रवाई या केवल बातचीत पर्याप्त नहीं है। एक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जो कई तत्वों को शामिल करके संभव है। विकास और कल्याण, आदिवासी क्षेत्रों में निवेश, शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढांचे में निवेश से नक्सलवाद की जड़ों को कमजोर किया जा सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार की ‘नियद नेल्ला ’ योजना एक अच्छी शुरुआत है। आदिवासियों को उनकी जमीन और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार दिलाने के लिए नीतियां लागू की जाएं, जैसे वन अधिकार अधिनियम, 2006 का प्रभावी कार्यान्वयन। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में युवाओं के लिए रोजगार और कौशल विकास कार्यक्रम शुरू किए जाएं। सैन्य अभियानों को और सटीक बनाया जाए ताकि नागरिक हताहतों को कम किया जा सके। नक्सलियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए स्थानीय समुदायों का सहयोग लिया जाये। सरकार नक्सलियों के साथ सशर्त बातचीत शुरू कर सकती है, जिसमें हथियार छोडऩा और हिंसा त्यागना अनिवार्य हो। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए प्रभावी पुनर्वास कार्यक्रम लागू किए जाएं, जिसमें शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक स्वीकार्यता सुनिश्चित हो। आदिवासी समुदायों को नक्सलवाद के खिलाफ जागरूक किया जाए और उन्हें सरकार की योजनाओं से जोड़ा जाए। सांस्कृतिक संवेदनशीलतौ आदिवासियों की संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करते हुए नीतियां बनाई जाए। राजनीतिक इच्छाशक्ति,केंद्र और राज्य सरकारों को नक्सलवाद को एक सामाजिक-आर्थिक समस्या के रूप में देखना होगा, न कि केवल सुरक्षा समस्या के रूप में। सभी राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर एकजुट होकर काम करना होगा।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का 31 मार्च 2026 तक नक्सलवाद को समाप्त करने का लक्ष्य महत्वाकांक्षी है, और सैन्य कार्रवाई, आत्मसमर्पण नीति, और विकास योजनाओं के माध्यम से इसमें प्रगति हो रही है। हालांकि, नक्सलवाद एक जटिल समस्या है, जिसके लिए केवल बंदूक पर्याप्त नहीं है। सैन्य दबाव नक्सलियों को कमजोर कर सकता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक सुधार और बातचीत के बिना यह समस्या बार-बार उभर सकती है। बातचीत की संभावना को पूरी तरह खारिज करने के बजाय, सरकार को सशर्त वार्ता और पुनर्वास पर विचार करना चाहिए। साथ ही, आदिवासी समुदायों के लिए शिक्षा, रोजगार, और भूमि अधिकारों पर ध्यान देना होगा। छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में विकास और सुरक्षा का संतुलन बनाकर ही नक्सलवाद को जड़ से खत्म किया जा सकता है।