Editor-in-Chief सुभाष मिश्र की कलम से – लुभावने वादों के बीच पिसते किसान

Editor-in-Chief

– सुभाष मिश्र Editor-in-Chief

कभी छत्तीसगढ़ में टमाटर उगाने वाले किसान, कभी महाराष्ट्र के प्याज की फसल लेने वाले किसान तो कभी कहीं के गन्ना किसान, कहीं के कपास लगाने वाले किसान सिस्टम के आगे घुटने टेक ही देते हैं। तमाम सरकारें इनके बारे में लाख लोक-लुभावनी बातें करें लेकिन धरातल पर सच्चाई बिलकुल अलग है। एक तरफ महंगाई डायन लगातार सुरसा की तरह अपना मुंह खोल रही है, सरकारें खामोश है तो दूसरी तरफ देश का बड़ा तबका देश का अन्नदाता अपने मेहनत की कमाई का लागत मूल्य नहीं निकाल पा रहे हैं, ये कैसा दुर्भाग्य है। बाजार में जिन वस्तुओं के दाम से लोग बेहाल हैं तो दूसरी तरफ किसान अपनी फसल के बदले मिलने वाले मूल्य़ को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। ऐसे में कवि धूमिल की ये कविता याद आती है…
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिफऱ् रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
धूमिल की कविता में आये ये तीसरा आदमी कौन है इस सवाल का जवाब साफ-साफ आज भी नहीं मिल पाया है। लगभग हर साल छत्तीसगढ़ के कई जिलों में टमाटर लगाने वाले किसान अपनी फसल को सड़कों पर फेंकने या खेत में सड़ाने पर क्यों मजबूर हैं? इस साल महाराष्ट्र में प्याज की अच्छी पैदावार हुई है लेकिन ये किसानों के लिए खुशी का सबब नहीं बन पाया है, क्योंकि उन्हें प्य़ाज की कीमत ही नहीं मिल रही है।
महाराष्ट्र में प्याज का रेट अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। एक क्विंटल जनवरी महीने में प्याज का औसत भाव 1392 रुपये प्रति क्विंटल था। वहीं, फरवरी महीने में इस भाव में तकरीबन 800 रुपये की गिरावट आई है। हालात ऐसे हैं कि किसानों को अब सिर्फ 500 रुपये में मिल रही है। किसानों को उनकी लागत मुल्य भी नहीं मिल पा रहा है, वे खड़ी फसल पर ट्रेक्टर चला रहे हैं।
राष्ट्रीय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के मुताबिक, 2021 में कुल 5,563 कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या की। ये आंकड़े ऐसे समय में आए हैं जब ज्यादा से ज्यादा किसान कृषि श्रमिक बन रहे हैं और एक किसान परिवार कृषि के मुकाबले मजदूरी पर अधिक निर्भर है। यह जानकारी 2021 में जारी नेशनल सैंपल सर्वे के आंकलन दस्तावेज में भी है। सर्वेक्षण के अनुसार, कृषि परिवार की कुल औसत आय में सबसे अधिक 4,063 रुपए की हिस्सेदारी मजदूरी से प्राप्त हुई थी। एक तरफ फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने की, बड़े-बड़े कोल्डस्टोरेज बनाकर किसानों की फसल को बचाने और उन्हें अधिकतम कीमत दिलाने की बात लगातार देश के बड़े नेता मंच से करते हैं। 2022 में किसानों की कमाई दोगुनी करने वाले प्रधानमंत्री मोदी के वादे और दावे कब के पिछड़ गए हैं और किसानों की यादों से मिट गए हैं।
छत्तीसगढ़ में सरकार ने 114 फूड पार्कों की स्थापना की घोषणा की थी, लेकिन इसके लिए 150 करोड़ के बजट का प्रावधान भी किया है। पूरी राशि व्यय हो चुकी है और कुछ जगहों को छोड़ दिया जाए तो ये कार्य भूमि के चयन से आगे नहीं बढ़ सका है। उदयपुर, सीतापुर, प्रतापपुर, सुकमा आदि विधानसभा क्षेत्रों में फूड पार्क की स्थापना का काम चल रहा है। केरल में किसानों को बड़ी राहत देते हुए सब्जियों का न्यूनतम मूल्य तय किय़ा गया। इसके तहत 16 प्रकार की सब्जियों को रखा गया है लेकिन इस तरह की ठोस पहल अभी देश के दूसरे हिस्सों में नजर नहीं आ रही है।
आजादी के बाद खेती-किसानी को देश का आत्मा मानते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि ‘सब कुछ इंतजार कर सकता है, लेकिन खेती नहीं।Ó दुर्भाग्यवश लोकलुभावन नीतियों और वोट बैंक की राजनीति के कारण खेती का इंतजार खत्म नहीं हुआ और वह बदहाली का शिकार बनती गई। आज स्थिति यहां तक आ गई है कि ग्रामीण मजदूरों की आमदनी किसानों से ज्यादा हो गई है। इस देश को तभी आगे ले जाया जा सकेगा जब किसान समृद्ध होंगे। नहीं तो बड़ी आबादी सिर्फ हाथ मलते रह जाएगी और धूमिल की कविता में आया तीसरा आदमी ही मलाई खाते रह जाएगा।

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