Direct Question To Prime Minister : प्रधानमंत्री से सीधा सवाल, मजदूर की दिहाड़ी और उनकी हांड़ी…
Direct Question To Prime Minister : छत्तीसगढ़ सरकार ने मजदूरों की मजदूरी बढ़ाई है। अब कुशल श्रमिकों को 448 रुपए तो अकुशल मजदूर को 393 रुपए मिलेंगे। तो वहीं कृषि मजदूरों को 273 रुपए दैनिक मजदूरी मिलेगी।
Direct Question To Prime Minister :छत्तीसगढ़ सरकार ने मजदूरों की मजबूरी समझी और उनकी दिहाड़ी तो बढ़ा दी। पर सवाल ये उठता है कि इस दिहाड़ी में मजदूर के घर की हांड़ी कैसे गर्म होगी ?
Direct Question To Prime Minister :जो मजदूर 448 रुपए दिहाड़ी कमाएगा, उसके घर में कम से कम दो बच्चे और पत्नी भी होगी। ऐसे में 30 रुपए किलोग्राम का गेहूं का आटा, 35 रुपए किलोग्राम का चावल, 120 रुपए किलोग्राम की दाल, 30 रुपए किलोग्राम की
आलू, 60 रुपए किलोग्राम का टमाटर, 80 रुपए किलोग्राम का परवल, 60 रुपए किलोग्राम का कटहल, 11 सौ रुपए का सिलेंडर खरीदने के बाद उसकी जेब में अपने बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए क्या बचेगा ?
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समझ से परे है। यही कारण है कि देश में मजदूर हमेशा से ही मजबूर रहा है। उसकी सुनने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं दिखाई देता। इसके बावजूद भी अगर छत्तीसगढ़ की संवेदनशील सरकार ने इतना सोचा ये एक बेहतरीन बात है।
केंद्र सरकार ने इस मामले में क्या किया ? वो तो बस सरकारी कर्मचारियों के वेतन भत्ते से लेकर सांसदों और विधायकों की चिंता करने में लगी हुई है। देश के प्रधानमंत्री भी ज्यादातर अपने मन की बात में अपने मन की ही पढ़ते और गढ़ते दिखाई
देते हैं। गंगा के किनारे सफाई करने वालों के पांव धोकर उनका आशीर्वाद तो लिया। क्या कभी किसी खेत में फावड़ा भांजते मजदूर के पास जाकर पूछा कि तुम्हारी समस्याएं क्या-क्या हैं ? तुम्हें सरकारी अस्पतालों में वाॅर्ड ब्वाय कितना गुर्राते
हैं ? डाॅक्टर साहब छूने के बाद हाथ साबुन से धोते हैं, गोया जहर छू लिया हो ? पुलिस वाले मामूली सी गलती पर कितना पीटते और घसीटते हैं ? तुम्हारे बच्चों की फीस का भुगतान नहीं होने के कारण सरकारी स्कूल के हेड मास्टर साहब कितनी
बार स्कूल से वापस घर भेज देते हैं ? प्रधानमंत्री ये क्यों नहीं पूछते कि आजाद भारत में रहते हुए भी आज तक तुम्हारे साथ गुलामों जैसा बर्ताव क्यों हो रहा है ? उन्हें न तो गरीबों की दिहाड़ी की चिंता है, और न ही उनकी हांड़ी की ।
मन की बात में कभी गरीबों के खर्चे के भी चर्चे तो होने चाहिए साहब ?
लोकतंत्र में सभी को समान अधिकार देने की बात करने वाले लोग, अक्सर मजदूरों को क्यों भूल जाते हैं ?
क्या मजदूर हमारे देश के नागरिक नहीं हैं ? क्या उनको वो अधिकार नहीं मिलने चाहिए जो एक भारतीय नागरिक को संविधान ने दिए हैं ? अगर ऐसा है तो फिर मजदूरों को खाली दिहाड़ी, और एक सरकारी कर्मचारी को सातवां वेतनमान ?
बाजार में दोनों को एक ही दर पर सामान खरीदते हैं । आखिर यह कैसी समानता है ? शिक्षा के अधिकारों की बात करने वाले तथाकथित उच्च शिक्षित अध्यापक फीस के अभाव में क्यों गरीबों के बच्चों को घर लौटा देते हैं ? ये कौन सा शिक्षा का
अधिकार है ? देश के प्रधानमंत्री को चाहिए कि वो एक बार फाइटर जेट, मिसाइलों और सबमरीन के मायाजाल से निकल कर धरातल पर जाकर मजदूरों की बात करें। उनकी समस्याओं का निदान करें। उनके अधिकारों की बात करें उनकी
पीड़ाओं को सुनें । वे भी इसी देश के नागरिक हैं, उनको भी समानता का अधिकार है, जो उनको मिलना चाहिए।