Dakshinayan Politics कांग्रेस : दक्षिणायन राजनीति

Dakshinayan Politics

Dakshinayan Politics राजकुमार सिंह

Dakshinayan Politics राजनयिक से राजनेता बने शशि थरूर को भारी अंतर से हरा कर 80 साल के मल्लिकार्जुन खडग़े 137 साल पुरानी कांग्रेस के 98वें अध्यक्ष तो बन गए हैं पर उनकी असली परीक्षा अब होगी।
इसलिए नहीं कि 24 साल के अंतराल के बाद कोई गैर-गांधी कांग्रेस की कमान संभाल रहा है, बल्कि इसलिए भी कि देश की सबसे पुरानी यह राजनीतिक पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है।

Dakshinayan Politics लगातार दो लोक सभा चुनाव और दर्जन भर से भी ज्यादा विधानसभा चुनावों में शर्मनाक पराजय से उपजी निराशा और हताशा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जिस गांधी परिवार को कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व माना जाता रहा, उसी पर जी-23 ने बाकायदा पत्र लिख कर सवाल उठाए।

जी-23 के अग्रणी नेता गुलाम नबी आजाद ने तो पहले ही राहुल गांधी पर सीधा हमला बोलते हुए जम्मू-कश्मीर में अपनी अलग डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी बना ली पर गांधी परिवार ने खडग़े को अध्यक्ष चुनवा कर परिवारवाद और आंतरिक लोकतंत्र, दोनों बिंदुओं पर आलोचकों को जवाब देने की कोशिश की है।

Dakshinayan Politics बेशक, खडग़े की प्रचंड जीत गांधी परिवार के आशीर्वाद का ही परिणाम रही पर उनके पक्ष में मतदान करने वाले कांग्रेस डेलीगेट्स अपनी जिम्मेदारी-जवाबदेही से मुंह नहीं चुरा सकते। राजनीति की सामान्य समझ रखने वाला भी जानता था कि नया अध्यक्ष गांधी परिवार का विस्त ही होगा।

अशोक गहलोत ने मुख्यमंत्री पद के मोह में जैसे रंग बदले, उसके बाद तो यह और भी जरूरी था कि कांग्रेस के साथ स्वयं भी साख के संकट से गुजर रहा गांधी परिवार किसी तरह का जोखिम न उठाए। इसीलिए अंतिम क्षणों में खडग़े पर दांव लगाया गया।

Dakshinayan Politics परिवार का आशीर्वाद खडग़े को मिला तो उसके मूल में भावी राजनीति की रणनीति भी खोजी जा सकती है। दलित समुदाय से आने वाले खडग़े पिछला लोक सभा चुनाव हारने से पहले कर्नाटक के गुलबर्गा से लगातार 10 बार जीत भी चुके हैं।

पराभव के दौर से गुजर रही कांग्रेस में चुनावी जीत का ऐसा रिकॉर्ड रखने वाले नेता ज्यादा नहीं हैं पर खडग़े को चुनने का यही कारण नहीं है। विधानसभा चुनावों के संदर्भ में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और हरियाणा को अपवाद मान लें तो उत्तर भारत से कांग्रेस लगभग लुप्त हो चुकी है।

Dakshinayan Politics बिहार और झारखंड में भी थोड़ी-बहुत बची है तो राजद, जदयू और झामुमो से गठबंधन की बदौलत। नहीं भूलना चाहिए कि यही उत्तर भारत भाजपा का मुख्य शक्ति केंद्र भी है। उत्तर भारत के 10 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों : उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, जम्मू और कश्मीर से 180 लोक सभा सांसद चुने जाते हैं। 2019 के लोक सभा चुनाव में इनमें 122 सीटें भाजपा की झोली में गई।

भाजपा को उत्तर भारत से कितनी जबर्दस्त शक्ति मिलती है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उसने 50 प्रतिशत मत हासिल करते हुए उत्तर प्रदेश की 80 में से 62 लोक सभा सीटें जीती थीं, जबकि कांग्रेस रायबरेली की एकमात्र सीट तक सिमट गई। स्वयं राहुल गांधी अमेठी से हार गए। उन्हें ऐसी आशंका रही होगी, तभी शायद वह केरल के कोट्टायम से भी लोक सभा चुनाव लड़े, और जीत भी गए।

Dakshinayan Politics राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने भाजपा से 2018 के विधानसभा चुनावों में सत्ता छीन ली थी लेकिन चंद महीने बाद हुए लोक सभा चुनाव में पासा पलट गया। हरियाणा में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई। इसी साल हुए विधानसभा चुनाव में आप ने पंजाब में जैसी प्रचंड जीत हासिल की है, उसके मद्देनजर वहां भी कांग्रेस की राह दुष्कर हो गई है।

संभव है कि नीतीश कुमार की महागठबंधन में वापसी से बिहार के चुनावी समीकरण कुछ बदल जाएं पर उसमें कांग्रेस की हिस्सेदारी बहुत ज्यादा नहीं होगी। ऐसे में मल्लिकार्जुन खडग़े को अध्यक्ष बना कर कांग्रेस ने दक्षिण भारत में अपनी जमीन बचाने और भाजपा का विस्तार रोकने की रणनीति बनाई लगती है। 2019 के लोक सभा चुनाव की ही बात करें तो दक्षिण भारत की कुल 130 सीटों में से भाजपा-नीत राजग के हिस्से 30 सीटें ही आई जिनमें से 25 कर्नाटक से मिलीं। कर्नाटक में लोक सभा की 28 सीटें हैं।

पिछले विधानसभा चुनाव के बाद के घटनाक्रम से तो लगता है कि इस बार भाजपा के लिए कर्नाटक में पुराना प्रदशर्न दोहरा पाना मुश्किल होगा। तमिलनाडु के मतदाता अपने मन का संकेत विधानसभा चुनाव में दे ही चुके हैं। पुड्डुचेरी और लक्षद्वीप में एक-एक लोक सभा सीट है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में क्षेत्रीय दलों वाईएसआर कांग्रेस और टीआरएस का राज है।

वाईएसआर का रुख केंद्र सरकार के प्रति सहयोगात्मक रहा है पर वह भाजपा को राज्य में पैर जमाने देने का जोखिम तो नहीं ही उठाएगी जबकि टीआरएस प्रमुख चंद्रशेखर राव तो खुद ही पीएम बनने के लिए विपक्षी ध्रुवीकरण में जुटे हैं। ऐसे में दक्षिण भारत में कांग्रेस को बड़ी चुनावी सफलता मिले या नहीं पर वह भाजपा का प्रभाव सीमित करने में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहेगी। भाजपा से मित्रता न रखने वाले क्षेत्रीय दल भी दक्षिण में बढ़त पाएं तो कांग्रेस को ज्यादा परेशानी नहीं होगी।

कांग्रेस की इस रणनीति की पहली परीक्षा अगले साल हो जाएगी जब कर्नाटक, तेलंगाना समेत देश के 10 राज्यों में विधानसभा चुनाव होंगे। इनमें कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ के अलावा मध्य प्रदेश भी शामिल हैं, जहां ज्योतिरादित्य सिंधिया के दल बदल के चलते कांग्रेस की सरकार गिर गई। पूर्वोत्तर के राज्य छोटे अवश्य हैं पर वहां कांग्रेस, भाजपा को सीधी टक्कर देने में समर्थ है।

Dakshinayan Politics ऐसे में हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव तथा अगले साल 10 राज्यों के विधानसभा चुनाव केंद्रीय सत्ता के लिए 2024 में होने वाले मुकाबले का सेमीफाइनल माने जा सकते हैं। ताजपोशी के तुरंत बाद हो रहे हिमाचल और गुजरात के चुनावों के परिणामों की कसौटी पर खडग़े को कसना उनके साथ अन्याय होगा लेकिन अगले साल के चुनाव परिणामों की जिम्मेदारी-जवाबदेही से वह नहीं बच पाएंगे।

कहना न होगा कि इस बीच संगठनात्मक ढांचा तैयार करने से लेकर राजस्थान समेत तमाम राज्यों में गुटबाजी से निपटने जैसी चुनौतियों से तो खडग़े को आये दिन ही दो-चार होना पड़ेगा। इन चुनौतियों से कैसे निपटते हैं-उस पर भी उनकी स्वतंत्र छवि, नेतृत्व की स्वीकार्यता तथा हताशा से कांग्रेस की मुक्ति निर्भर करेगी।

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