Chief Editor सुभाष मिश्र की कलम से – आत्महत्या के खिलाफ छेड़ें एक जंग

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– सुभाष मिश्र Chief Editor

हाल ही में आत्महत्या के मामलों में बढ़ोतरी देखी गई है। राजधानी रायपुर में खुदकुशी और सामूहिक खुदकुशी की घटनाएं सामने आई है। एक छात्रा ने तो निर्माणधीन बिल्डिंग की छत से लोगों के सामने ही दिनदहाड़े खुदकुशी कर ली। आत्महत्याओं पर अध्ययन करने वाले जाने-माने फ्रांसीसी समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम का कहना है कि भले ही आत्महत्या गोपनीय और व्यक्तिगत फैसले के तहत की जाती है, लेकिन इसका कोई न कोई मजबूत सामाजिक कारण होता है। ऐसे में हमारी चिंता और बढ़ जाती है कि आखिर हमारे समाज में ऐसा क्या बदलाव आया है कि इस तरह का आत्मघाती कदम लोग छोटी-छोटी बातों पर उठा रहे हैं। इसमें इस बात से चिंता और बढ़ रही है कि छोटी उम्र के बच्चे भी बहुत जल्दी अवसाद या क्रोध पर काबू नहीं कर पाने के कारण आत्महत्या कर रहे हैं।
दुनिया भर में हर साल लगभग 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। इनमें से 17 फीसदी भारत के निवासी हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 16.4 और पुरुषों की 25.8 फीसदी है। यदि हम आकड़ों को देखें तो देश भर में सबसे ज्यादा आत्महत्या पारिवारिक समस्या, स्वास्थ्य समस्या, विवाह संबंधी समस्या और प्रेम संबंधों के चलते होती है।
आज युवा वर्ग मानसिक विकारों के चलते छोटी-छोटी बातों में आत्महत्या के बारे में विचार करने लगता है। अगर ऐसे व्यक्ति के परिजन मित्र अगर सजग रहें तो आत्मघाती कदम के बारे में सोच रहे लोगों को बचाया जा सकता है। फिल्म अभिनेता सुशांत राजपूत के केस में कुछ इसी तरह की बातें नजर आती हैं कि कैसे ये युवा अभिनेता खुद को अकेले महसूस कर रहा था और उसके इस मानसिक संघर्ष के दौर में उसके सभी अपने उससे दूर थे। ऐसी स्थिति किसी के भी जीवन में आ सकता है। अक्सर लोग मानसिक समस्या को छुपाने की कोशिश करते हैं या फिर उसे समझ ही नहीं पाते। हमारे यहां मानसिक समस्य़ा को पागलपन से जोड़ दिया जाता है। इसलिए लोग अपनी समस्या को कह नहीं पाते जबकि आज के दौर में बहुत से लोग तनाव, अवसाद की समस्या से जूझ रहे हैं। छोटे होते परिवार, सोशल मीडिया, बदलती लाइफ स्टाइल, कामकाज का बोझ इसके प्रमुख कारण हैं।
इन सबसे परे हम देश के भविष्य यानि युवाओं और विद्यार्थियों की बात करें तो आत्महत्या का विषय बहुत गंभीर है। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक पिछले पांच साल 2017 में 9,905, 2018 में 10,159 , 2019 में 10,335, 2020 में 12,526 और 2021 में 13,089 छात्रों ने आत्महत्या की है। इन आंकड़ों में 2020 और 2021 का आंकड़ा महत्वपूर्ण है क्योंकि कोरोना के चलते सभी परीक्षाएं रद्द थीं या फिर ऑनलाइन थीं। सभी विद्यार्थी अपने अपने घरों में थे उसके बावजूद आत्महत्या की संख्या काफी ज्यादा है। आत्महत्या करने वाले छात्रों में लड़कों की संख्या लड़कियों की अपेक्षा ज्यादा थी। हाल ही में हरिद्वार में पांचवी क्लास के बच्चे ने परीक्षा के दबाव में आकर आत्महत्या कर ली। इस तरह की दर्दनाक घटना किसी को भी झकझोर सकती है। आज हम किस तरह का समाज गढऩे में लगे हैं। जिसका दबाव मासूम जिंदगी को निगलते जा रहा है, वैसे भी इस दबाव के माहौल ने बच्चों का बचपन पहले छीन लिया है।
छत्तीसगढ़ समेत देश भर में परीक्षाएं हो रही हैं। ऐसे में बच्चों को दबाव मुक्त परीक्षा देने में परिजनों को भूमिका निभानी होगी। साथ ही बाजारवाद की गिरफ्त में आकर अपने बच्चों पर किसी भी तरह का दबाव बनाने से बचिए और कहीं कोई समस्या आ रही है तो मनोचिकित्सक या काउंसलर से जरूर मिलना चाहिए। इस तरह हम सबको इस बुराई के खिलाफ एक जंग छेडऩे की जरूरत है।

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