Chief Editor सुभाष मिश्र की कलम से – लोकतंत्र पर धनबल का साया

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– सुभाष मिश्र Chief Editor

पूंजीवाद की राजनीतिक दिक्कत, अपनी उस बुनावट से पैदा होती है, जिसमें अल्पसंख्यक नियोक्ताओं और बहुसंख्यक कामगार का एक ग़ैर लोकतांत्रिक जटिल ढांचा है। जाने-माने अंबेडकरवादी और एडवोकेट डॉ. एसएल विरदी कहते हैं भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे महसूस किए जा रहे हैं, जिसके लिए सचेत होने की जरूरत है। उन्होंने बताया कि भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए 563 राजाओं की शक्ति को खत्म करके राजाशाही और तानाशाही को खत्म किया गया था। पर आज फिर राजनीतिकों के रहन-सहन के अंदाज को देखकर ऐसा लगता है कि फिर से तानाशाही जन्म ले रही है। हमारे यहां चुनावों में जिस तरह भारी भरकम बजट चुनावों में खर्च किए जा रहे हैं। उससे ऐसा लगने लगा है कि आम आदमी का चुनाव जैसी प्रक्रिया में हिस्सेदारी लेना बहुत मुश्किल होते जा रहा है।
उदाहरण के लिए देखें कि कैसे चुनाव अमीरों के लिए होते जा रहा है। इन दिनों पूर्वोत्तर के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में चुनाव हो रहा है। हाल ही में यहा मतदान भी हुए हैं। इस बार चुनाव लड़ रहे मेघालय के 375 में से 186 और नगालैंड के 184 में से 116 प्रत्याशी करोड़पति हैं। त्रिपुरा में चुनाव मैदान में उतरे 259 प्रत्याशियों में से 45 उम्मीदवार करोड़पति हैं। इससे अंदाजा लग सकता है कि चुनाव में उन प्रत्याशियों का दबदबा बढ़ रहा है जिनके पास धनबल मौजूद है। राजनीतिक पार्टियां भी इन्हें उम्मीदवार बनाने ज्यादा रुचि ले रहे हैं।
प्रेस इन्फॉरमेशन ब्यूरो और चुनाव आयोग की ओर से दिए गए आंकड़ों के अनुसार, सिर्फ लोकसभा चुनाव में ही खर्च के बारे में इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 1952 के चुनाव में प्रति वोटर 60 पैसा खर्च आया था, जो 2009 में 20 गुना बढ़कर 12 रुपए हो गया। 2014 में यही खर्च प्रति वोटर बढ़कर 42 रुपए हो गया। 2019 में लगभग 6500 करोड़ रुपए का खर्च आया। इस आधार पर प्रति वोटर यह खर्च 72 रुपए बैठता है। 1952 से लेकर 2019 तक के लोकसभा चुनाव में खर्च 400 गुना से ज्यादा बढ़ गया है। ऐसे में इस पर सभी राजनीतिक दलों को विचार करना चाहिए। इस रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 6 लोकसभा चुनाव में खर्च का आंकड़ा छह गुना बढ़ा है। 1998 के लोकसभा चुनाव में जहां 9,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 55 हजार करोड़ रुपये को पार कर गया है।
रिपोर्ट के मुताबिक चुनावी खर्च में बाकी दलों की तुलना में सत्तारूढ़ दल सबसे आगे रहे हैं, जहां 1998 में जब भाजपा की अगुवाई में एनडीए की सरकार थी तब भाजपा ने कुल व्यय का 20 फीसदी खर्चा था, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 45 से 55 फीसदी के बीच का है। 2009 में जब केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी तब कांग्रेस ने जहां कुल खर्च का 40 प्रतिशत खर्च किया था, 2019 में यह 15-20 फीसदी रहा।
चुनावी खर्च एक ऐसा मुद्दा है जिसमें निर्वाचन आयोग, राजनीतिक दल और भारत सरकार तीनों के ही अपने-अपने दृष्टिकोण हैं। सैद्धांतिक रूप से यह माना गया है कि चुनाव में भागीदारी करने या निर्वाचित होने का अधिकार देश के हर नागरिक को है। इसलिए सबको एक समान अवसर प्रदान करने के लिहाज से चुनाव संहिता के तहत उम्मीदवारों के खर्च की सीमा निर्धारित की गई थी, ताकि ऐसा न हो कि आर्थिक ताकत के बूते धनाढ्य वर्ग चुनाव जीत जाए और अपेक्षाकृत गरीब या सामान्य तबके का व्यक्ति इसमें पिछड़ जाए।
जैसे-जैसे धन खर्च के नियमन का प्रयास हुआ, वैसे-वैसे इन नियमों को अप्रभावी बनाने के लिए नए-नए तरीके भी खोज लिए गए।
चुनावी व्यवस्था में सुधार के लिए दुनियाभर में कैंपेन फंडिंग से जुड़े सुधार प्राथमिकता में हैं। चुनावों में पैसे के महत्व के मामले में भारत की स्थिति भी
किसी अन्य देश से अलग नहीं है। हालांकि, इस मसले को मतदाताओं के बीच उतना महत्व नहीं मिला है, जितना मिलना चाहिए। ज्यादा धनबल वाले राजनीतिक दल प्राय: ज्यादा आसानी से चुनाव जीत जाते हैं। वे चुनाव अभियानों और मतदाताओं तक पहुंचने के लिए पैसे का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि चुनावी बॉण्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने की एक नई व्यवस्था के रूप में हमारे सामने आया है। सरकार का दावा है कि इस नई व्यवस्था से राजनीतिक दलों को गलत तरीके से की जाने वाली फंडिंग के प्रचलन पर रोक लगेगी और उन दलों को ही चंदा दिया जा सकेगा जो इसके योग्य हों। लिहाज़ा सरकार ने चुनावी बॉण्ड के लिये कई नियम बनाए हैं। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो देश में लोकतंत्र बहाल करने के मामले में हमारी स्थिति पश्चिम से कुछ उलट है।
भारत ने पहले लोकतंत्र का वरण किया और बाद में पूंजीवाद का। वह पूर्ण लोकतंत्र तो 1950 में ही बन गया लेकिन बाजार की ताकतों को खुली छूट उसने 1991 में जाकर दी। शेष विश्व में यह इससे ठीक उलटा हुआ। वहां पहले पूँजीवाद आया, फिर लोकतंत्र अर्थात पहले समृद्धि का निर्माण किया गया और फिर इस बात पर बहस छिड़ी कि इस समृद्धि का वितरण कैसे किया जाएगा। सवाल यह है कि कोई करोड़ों रुपए खर्च कर सिर्फ सेवा क्यों करना चाहेगा? इसलिए राजनीति कमाई और और रुआब का पर्याय बन गई है।

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