cheetah- प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से- चीता के बहाने चिंतन

cheetah

From the pen of editor-in-chief Subhash Mishra – Chintan on the pretext of a cheetah– प्रधान संपादक सुभाष मिश्र की कलम से- चीता के बहाने चिंतन

-सुभाष मिश्र

पिछले दो दिनों से देश का मीडिया चीतामय नजर आ रहा है, गली-मोहल्लों में अचानक से पैदा हुए वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट इस पर घंटों बहस कर चुके हैं। कुछ चीता को लेकर चिंता व्यक्त कर रहे हैं, तो कुछ इसे जंगलों की सुरक्षा और सुंदरता से जोड़ते हुए अत्यंत खुश हो रहे है। इन सबके बीच एक बड़ा वर्ग और है जो चीता के बहाने अपना पॉलटिकल इको सिस्टम बनाने में जुटा हुआ है। दरअसल देश में करीब 70 साल बाद चीतों की वापसी के लिए दिन मुकर्रर किया गया 17 सितंबर का, 17 सितंबर देश के प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन है। इस दिन को खास बनाने के लिए, पीएम मोदी के हाथों ही पिंजरे का लिवर घुमवाया गया। जिससे चीते मध्यप्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में बने खास बाड़े में प्रवेश कर गए। वे अब यहां तीस दिनों के लिए क्वारंटाइन रह कर यहां के वातावरण के साथ पूरी तरह से तालमेल बैठा लेंगे।

भले ही हमारे देश में 70 सालों से चीते विलुप्त हैं, लेकिन आम जनमानस में ये प्राणी हमेशा से बसा हुआ है, इसकी पहचान बेहद तेज तर्रार शिकारी के तौर पर की जाती है। हम किसी बेहद फुर्तिले शख्स या काम को चीते की तेजी से अलंकृत करते आए हैं। इसलिए भी प्रधानमंत्री मोदी के चाहने वाले चीते को उनके साथ जोड़कर एक नया औरा बनाने की कोशिश सोशल मीडिया पर जमकर कर रहे हैं।

दुष्यंत कुमार चीते की पकड़ की तुलना मौत से करते हुए लिखते हैं-
मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह
जि़ंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ ।।

शिकार और जंगल के कटने की वजह से बहुत से जंगली जानवर या तो समाप्त हो रहे हैं या यहां-वहां भटक कर जंगल से लगी बसाहट में अपने लिए दाना पानी तलाश रहे हैं। छत्तीसगढ़ में इस समय हाथियों का आतंक और गांवों में आमद का यहीं कारण है। कूनो नेशनल पार्क के आसपास के लोगों की मीडिया में खुशी दिखाई जा रही है। उन्हें लग रहा है कि चीतों के आने से रोजगार के नये अवसर मिलेंगे।

cheetah हमारे राजनीतिज्ञों की तरह है। वे दहाड़ते नहीं गुर्राते हैं। चीता मोदी जी की पर्सनाल्टी को सूट करता है। उनकी शन्नार किसी चीते से कम नहीं है। वे देश की राजनीति में सबसे सक्रिय नेता और ऊर्जा से लबरेज है। मोदी जी के जन्मदिन पर देश को मोदी का रिटर्न गिफ्ट बताया जा रहा है। उन्हें उनके फॉलोवर विश्व गुरू बताकर उनके हर कदम की तारीफ करते नहीं थकते। कथित सर्वें उन्हें दुनिया का सबसे लोकप्रिय राजनेता बता रहा है। इससे उलट विपक्ष कह रहा है कि मोदी जी देश को मुख्य मुद्दों से भटकाने के लिए समय-समय पर इसी तरह का कोई न कोई उपक्रम करते ।

पुराने दस्तावेज़ बताते हैं कि दिसंबर 1947 में कोरिया के महाराज रामानुज प्रताप सिंहदेव ने अपनी रियासत के रामगढ़ इलाक़े में तीन चीतों का शिकार किया था।

उसके बाद भारत में एशियाई चीतों के कोई प्रमाण नहीं मिले और भारत सरकार ने 1952 में चीता को भारत में विलुप्त प्राणी घोषित कर दिया।

1909 में प्रकाशित, लगभग पांच सौ पन्नों की द तुज़ूक-ए-जहांगीरी ऑर मेमरी ऑफ जहांगीर की मानें तो मुग़ल बादशाह अकबर के पास कम से कम एक हज़ार पालतू चीते हुआ करते थे। जहांगीर ने लिखा है कि उनके पिता ने अपने जीवनकाल में नौ हज़ार चीतों को पाला था। हालत ये हो गई कि 1918 से 1945 तक अलग-अलग अवसरों पर कम से कम 200 अफ्रीकी चीतों को भारतीय राजा-महाराजाओं ने शिकार के लिये भारत आयात किया।

वैसे भारत में आखिरी बार चीता छत्तीसगढ़ के कोरिया रिय़ासत में देखे गए थे।
इस रियासत के रामचंद्र सिंह देव के अनुसार, जिन चीतों का शिकार उनके पिता रामानुज सिंहदेव ने दिसंबर 1947 में किया था, उसी समय दक्षिण भारत में उनकी ट्रॉफी बनवाई गई थी। रामचंद्र सिंहदेव ने बीबीसी से एक बातचीत में कहा था कि उनके पिता ने मारे गए चीतों में से एक की ट्राफी, बस्तर के राजा को भेंट की थी, जो अब बस्तर के राजमहल में रखी हुई है। कोरिया में जिन तीन चीतों को मारा गया, उसकी तारीख़ का ठीक-ठीक पता नहीं है, लेकिन माना जाता है कि इन चीतों का शिकार दिसंबर 1947 की किसी तारीख़ को किया गया था।

बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के दस्तावेज़ में इस बात का उल्लेख है कि रामानुज प्रताप सिंहदेव के इस शिकार गाथा को प्रकाशित करने के अनुरोध के साथ, रामानुज प्रताप सिंहदेव के निजी सचिव ने 9 जनवरी 1948 को एक चि_ी सोसायटी को भेजी थी।

राजे-महाराजे अपने शिकार का शौक पूरा करने के लिए भी चीतों की मदद लेने लगे। वो चीतों को जंगली जानवरों खासकर काले हिरणों के शिकार की ट्रेनिंग दी जाती थी। मुगलों ने तो इस प्रथा को खूब आगे बढ़ाया। कहा जाता है कि अकबर ने 1556 से 1605 के अपने शासनकाल में करीब-करीब 9 हजार चीतों का संग्रह किया। फतेहपुर सीकरी में कभी चीताखाना हुआ करता था।

हालांकि भारत में cheetah के विलुप्त होने का जो कारण कुछ वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं, उसके मुताबिक चीता का स्वभाव आंतरिक रूप से विनम्र प्रकृति का है। चीते इतने सौम्य थे कि उसकी तुलना कुत्ते से की गई। मुगल और ब्रिटिश काल में इन्हें घरों में भी पाल लिया जाता था। शिकारों में इसका बहुतायत में इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह एशियाई चीते भारत से विलुप्त हो गए थे।

खुद प्रधानमंत्री ने कहा कि ये अतीत को सुधारकर नए भविष्य को बेहतर करने का मौका है। उन्होंने कहा दशकों पहले जैव-विविधता की सदियों पुरानी जो कड़ी टूट गई थी, आज हमें उसे फिर से जोडऩे का मौका मिला है। आज भारत की धरती पर चीते लौट आए हैं। इन चीतों के साथ ही भारत की प्रकृतिप्रेमी चेतना भी पूरी शक्ति से जागृत हो उठा है।
उन्होंने पूरवर्ती सरकारों को चीते के बहाने कटघरे में खड़े करते हुए कहा कि ये दुर्भाग्य रहा कि हमने 1952 में चीतों को देश से विलुप्त तो घोषित कर दिया, लेकिन उनके पुनर्वास के लिए दशकों तक कोई सार्थक प्रयास नहीं किया।
हालांकि इसको लेकर विपक्ष भी अपना अलग राग अलाप रहा है, और चीतों की वापसी में कुछ श्रेय मनमोहन सिंह की सरकार को भी देने की गुजारिश कर रहा है। जयराम रमेश भी ट्विट करके अपनी चीते के पुरानी तस्वीर साझा कर रहे ।

चीते के बहाने कोई सियासी छवि गढ़ने की कोशिश कर रहे लोग पहले इस प्राणी के बारे में जान लें फिर कोई औरा गढऩे की कोशिश करें। हम cheetah के बहाने इस सियासी श्रेय लूट के बीच प्रधानमंत्री मोदी को जन्मदिन की बधाई देते हैं साथ ही कामना करते हैं कि हमारे देश में चीता आबाद हों और यहां के जलवायु से सामंजस्य बैठा सकें। साथ ही प्रधानमंत्री ने जो बात कही है कि चीतों से देश के प्रकृति प्रेम जगेगा तो वो भी पूरा हो हम यही कामना करते हैं।

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