Politics भारत की आर्थिक राजनीति पर भाजपा की कशमकश को उजागर

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भूपेन्द्र गुप्ता अगम

Politics बारूद के ढेर पर अगरबत्ती सुलगाती राजनीति

Politics महाराष्ट्र के महामंथन के बाद जो अमृत और जहर निकल कर सामने आये हैं, उसने भारत की आर्थिक राजनीति पर नियंत्रण करने की भाजपा की कशमकश को उजागर कर दिया है।

Politics इतना ही नहीं सैकड़ों वर्ष पुरानी हिंदू पदपाद शाही और पेशवाई के द्वंद भी सामने ला दिए हैं । इस महाभारत में अमृत मंथन के जो परिणाम सामने आए हैं वे ना केवल चौंकाने वाले हैं बल्कि राजनैतिक विवशता की पराकाष्ठा को व्यक्त करते हैं।

सभी जानते हैं कि देवेन्द्र फडनवीस 5 साल तक मुख्यमंत्री रह चुके हैं और वे स्वयं ही शिवसेना के विद्रोही नेता एकनाथ शिंदे को उप-मुख्यमंत्री बनाने के ऑफर दे रहे थे।

Politics अचानक उन्ही फडऩवीस को विद्रोही एकनाथ शिंदे का उप-मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब वह कैडर आधारित पार्टी नहीं रही है, बल्कि पूर्णरूपेण राजनीतिक पार्टी बन गई है।

सत्ता के लिए उसे किसी भी तरह के समझौते करने से कोई गुरेज नहीं है। आवश्यकता पडऩे पर वह आतंकवाद की पोषक बताई जाने वाली पार्टी पीडीपी के साथ भी सत्ता में भागीदार बनने तैयार हैं।

अपने ही एक सीनियर पूर्व मुख्यमंत्री को अल्पमत के विद्रोहियों के नीचे उप मुख्यमंत्री बनाने भी तैयार है। यह एक संदेश है कि कार्यकर्ता केवल कार्यकर्ता ही है और सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य मार्ग में अगर उसकी गर्दन कटती है तो पार्टी दुश्मन को भी अपना बनाने तैयार है।

Politics सभी जानते हैं कि महाराष्ट्र में अन्य पिछड़ा वर्ग बहुत शक्तिशाली है छोटी-छोटी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियां ना केवल लड़ाकू है बल्कि सैन्य संरचना और साहस को समझती हैं और शिवसेना प्रतीक रूप में उनकी पहचान बन चुकी है ।छत्रपति शिवाजी ने जिन पिछड़ी जातियों को जोडक़र अपनी राज्य व्यवस्था कायम की थी लगभग वही जाति संतुलन शिवसेना के गठन में परिलक्षित होता है ।

अगड़ी जातियों द्वारा आर्थिक राजधानी पर कब्जा करने की नीयत से दिल्ली की सहायता से मुंबई पर जो हमला किया है उसे यह पिछड़ी जातियां किस सीमा तक सहन करेंगीं यह समय के गर्भ में है। किंतु यह तो साफ ही है कि भविष्य में अगड़ी और पिछड़ी का संघर्ष आर्थिक राजधानी से ही शुरू होगा ।

बहुत संभव है कि शिवसेना इसे मराठी मानुस और गुजराती अर्थ सत्ता के संघर्ष में बदल दे। अगर ऐसा हुआ तो भारत के सामने एक नया अर्थ संकट खड़ा होने जा रहा है।

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Politics शिवसेना सरकार के पतन और एकनाथ की ताजपोशी को अर्थ जगत ने कैसे लिया है इसका प्रमाण है कि दो दिन में ही सेंसेक्स लगभग एक हजार प्वाइंट नीचे आ गया और जून का महीना खुदरा निवेशकों के लिये लुटने का जून हो गया है।
विद्रोही एकनाथ शिंदे ने बहुत ही सफाई से इस गठबंधन को हिंदुत्व का पैरोकार बता कर दलबदल की अनैतिकता पर पर्दा डालने की कोशिश की है।

यह मुंबई में सभी जानते हैं कि भाजपा के साथ पिछली पंचवर्षीय सरकार में जब शिवसेना शामिल थी तब एकनाथ शिंदे ने ही सार्वजनिक कार्यक्रम में अपना इस्तीफा देकर शिवसेना पर भाजपा गठबंधन से निकलने का दबाव बनाया था।

उनका कहना था कि भा ज पा शिवसेना को खाने की चेष्टा कर रही है और उद्धव ठाकरे को भाजपा से गठबंधन तोड़ लेना चाहिए ।

Politics आखिर कब तक शिवसैनिक भाजपा की प्रताडऩा और भेदभाव पूर्ण व्यवहार को सहन करें ।आज वही एकनाथ शिंदे उसी भाजपा से कथित हिंदुत्व के नाम पर समझौता कर रहे हैं,बल्कि महाविकास अघाड़ी की नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं।

देश के लगभग सभी दल जिन्होंने समय-समय पर भाजपा के साथ गठबंधन किया था यह मानते हैं कि भाजपा हमेशा सबसे पहले अपने ही गठबंधन के सहयोगियों को खाने की कोशिश करती है।

पूर्व में चाहे बसपा रही हो, चाहे अकाली दल या नीतीश कुमार की पार्टी हो सभी पार्टियां लगभग समाप्त हो रहीं हैं,उनकी लीडरशिप का बड़ा हिस्सा भाजपा में जुड़ चुका है।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और बी जे डी जरूर ऐसी पार्टियां हैं जो हाथ छुड़ाकर ना भागीं होतीं तो वे भी शिवसेना की तरह विभाजन की पीड़ा से गुजर रहीं होतीं।

उन्होंने मगरमच्छ के मुंह से बाहर निकल कर जान तो बचा ली है मगर भाजपा अपना अपमान और लक्ष्य नहीं भूली होगी यह भी तय है।

तात्कालिक सत्ता के लिये अल्पमत के नीचे बहुमत होते हुए भी भाजपा काम करने तैयार है। याद कीजिए यही समझौता बिहार में हुआ था जहां अल्पमत के नीतीश कुमार तो मुख्यमंत्री हैं और बहुमत की भाजपा का उपमुख्यमंत्री।

सत्ता के लिये महाराष्ट्र का ताजा सौदा भले ही भाजपा के लिये आर्थिक राजधानी के खजाने के दरवाजे खोल दे मगर आने वाले समय में उसके कार्यकर्ताओं का खजाना भी लुट सकता है,यह भी संभावना है।

महाराष्ट्र का यह महाभारत अभी तक राजनीति के गलियारों में था आगे चलकर इस महाभारत के समाज में उतरने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता और उसी अग्निपथ पर आर्थिक राजधानी का भविष्य निर्भर होगा।फिलहाल तो राजनीति बारूद के ढेर पर बैठकर अगरबत्ती सुलगा रही है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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