(Adani is India) “अडानी इज इंडिया” के दावे पर इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई?

(Adani is India)

(आलेख : बादल सरोज)

(Adani is India) “अडानी इज इंडिया” के दावे पर इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई?

(Adani is India) सक्ती भारत में 21वीं सदी के सबसे बड़े घोटाले, ठगी और बेईमानी पर दुनिया भर में भारत की सरकार और उसके कारपोरेट की भद्द पिटी पड़ी है। बाजार अपने निर्णय सुना रहा है, मगर जिन्हें बोलना था, वे न बोल रहे हैं, ना ही संसद तक में बोलने दे रहे हैं। बहरहाल यहां प्रसंग अरबों डॉलर की उठापटक नहीं है – एक घोटालेबाज का खुद को देश का पर्याय बताना, जलियांवाला बाग़ से लेकर राष्ट्रीय ध्वज तक को अपने बचाव में इस्तेमाल करना है। भारतीय लोकतंत्र का “अडानी इज इंडिया” तक जा पहुंचना सिर्फ एक दिलचस्प यात्रा नहीं है, यह भारतीय राजनीति और समाज के गुणात्मक कायांतरण की गाथा है। इसकी एक क्रोनोलॉजी है। इसलिए इसे सिर्फ एक कठघरे में घिरे अभियुक्त की घबराहट में कही गयी बात तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता।

(Adani is India) यह आतप्त और अति-तप्त वचन आजाद भारत में दूसरी बार इस तरह बोला गया है। इनसे पहले एक थे देबकान्त बरुआ। 1974 में, जब कांग्रेस में नेतृत्व आराधना – बोले तो – चमचागिरी एकदम्मे उरूज पर थी, तब वे अपनी तब की नेता से इत्ते अभिभूत हुए कि उनकी शान में “इंदिरा इज इंडिया – इंडिया इज इंदिरा” (इंदिरा ही भारत हैं, भारत ही इंदिरा हैं) का जुमला उछाल कर भारत के लोकतंत्र में ऐसा कर्रा चीरा लगाया था कि साल भर में वह पूरी तरह उधड़ कर खूँटी पर टँग गया। इमरजेंसी लग गई, जो पूरे 19 महीने चली। बाद में इंडिया की जनता ने इन उधड़नों की सलीके से तुरपाई की, जहाँ जरूरी था, वहाँ रफू किया। कुछ कमजोर सींवन दुरुस्त कीं। आगे ऐसा नहीं होगा, इसके बारे में थोड़ा सा विश्वास जगाया।

(Adani is India) बरुआ जी की याद उस दौर के भी कम ही लोगों को होगी। जिन्हें याद हैं, उन्हें भी वे अपने इस आपत्ति-वचन की वजह से याद हैं। कभी भारत की संविधान सभा के सदस्य तक रहे बरुआ जी जब संविधान से ही खेले, उसके लोकतंत्र नाम के मजबूत खम्भे से टकराये, तो इतिहास के किसी कोने में ऐसे गुम हुए कि स्मृति से ही लापता हो गए ।

(Adani is India) एक प्रतिष्ठित स्वतंत्र एजेंसी की रिपोर्ट में अपने घोटाले, धोखाधड़ी और आदि-इत्यादि का भंडाफोड़ होने पर जब गौतम अडानी ने खुद को “इंडिया” बताने वाला जुमला उछाला, तो बरुआ जी की याद आयी और जैसा कि कफनचोर जुम्मन मियां और उनके वारिस कफ़न चोरी के बाद कब्र में दफ़न मुर्दे को भी घर के बाहर रख देने वाले लल्लन मियां के नाम से मशहूर कहानी में है, कुछ लोगों को लल्लन मियां की तुलना में जुम्मन चचा बड़े शरीफ लगने लगे थे। इसी मिसल से मौजूदा चुकन्दरों की तुलना में बरुआ जी बड़े सीधे-सादे से लगते हैं।

(Adani is India) इसलिए कि बावजूद हर कुछ के श्रीमती इंदिरा गांधी एक राजनीतिक व्यक्तित्व थीं। उस वक़्त की सबसे बड़ी पार्टी की सबसे बड़ी नेता, लोकसभा की चुनी हुई सांसद, जनता द्वारा चुने हुए सांसदों द्वारा चुनी गई प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने जो किया या बरुआ जी जैसे अपने अनुयायियों द्वारा करवाया, उनके किये को स्वीकारा या अनुमोदित किया, वह अनुचित, अलोकतांत्रिक और अस्वीकार्य था, किंतु यह राजनीतिक कदाचरण था और उनकी एक हैसियत – लोकस स्टैंडाई – थी ।

दूसरे यह कि इस जुमले के बाद पूरे देश मे उनकी और उनकी पार्टी की जो थुक्का-फ़ज़ीहत हुई थी, उसका नतीजा दुनिया ने देखा। वे खुद भी हारीं। उनकी पार्टी का शीराजा भी ऐसा बिखरा कि सिमट ही नहीं पाया। बुनियाद तक हिल गयी और सो भी ऐसी हिली कि 50 बरस होने को हैं, वह कम्पन और थरथराहट अब तक कायम है ।

(Adani is India) तीसरे यह कि तब विपक्ष और बाकी इंडिया ने तो इस दम्भोक्ति और उसकी निरंतरता में आयी एकदलीय तानाशाही सहित बाकी राजनीतिक कारगुजारियों की भर्त्सना की ही थी ; स्वयं इंदिरा कांग्रेस के भीतर भी कड़े विरोध की आवाजें उठीं। पहली खेप में चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत ने इस आत्ममुग्ध व्यक्तिवाद के खिलाफ आवाज उठाई। दूसरी खेप में बाबू जगजीवनराम से लेकर हेमवतीनंदन बहुगुणा जैसे दिग्गजों ने बगावत की। यही बढ़ती तानाशाही थी, जिससे उपजे रोष और आक्रोश को प्रतिरोध में बदलते हुए जयप्रकाश नारायण की अगुआई में हुए विराट जनउभार की शक्ल में देश और दुनिया ने देखा। गरज ये कि इस देश ने इंदिरा गांधी जैसी शख्सियत को भी माफ़ नहीं किया। उन्हें भी कोई रियायत नही दी ।

उसी नारे को दोहराते हुए आज 48 साल बाद जो खुद को “इंडिया” बता रहे हैं, वे गौतम अडानी कौन हैं?

(Adani is India) हिन्डेनबर्ग रिपोर्ट में प्रयुक्त अंग्रेजी के शब्द कोन – Con – के शब्दकोष अर्थ के अनुसार दुनिया का सबसे शातिर ठग, तिकडमी, भेदी और चोर । हालाँकि हिन्डेनबर्ग द्वारा सारे खातों और हिसाबों की जाँच पड़ताल के बाद जारी चरित्र प्रमाणपत्र से पहले से ही “जाने न जाने चौकीदार न जाने पर गांव तो सारा जाने है” की तर्ज पर पूरा इंडिया दैट इज भारत जानता था कि गौतम अडानी क्या है? एक बड़े परिवार के साथ चॉल में रहने वाले अडानी गुजरात की मुंसिपाल्टी और ऐसे ही छोटे-मोटे सरकारी ठेकों के बाद 1988 में 5 लाख रुपये की पूंजी से एक छोटी सी कमोडिटी कम्पनी शुरू करने वाला वह उद्यमी है, जिसने 2001 में नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ऐसी छलांगें मारी कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद वह भारत के सभी बड़े पूँजीपति घरानों को पीछे छोड़ते हुए पहले भारत का, फिर एशिया का सबसे धनी व्यक्ति बना। बाद में दुनिया का तीसरे-चौथे नम्बर का रईस हो गया। यह कैसे हुआ? इसके लिए कितने कानून बदले गए, कितने गैरकानूनी काम हुए, किस किस तरह की धांधलियां हुईं, देश की कौन-कौन सी सम्पत्तियां खुर्दबुर्द की गईं, इसे लिखना शुरू करने में मिथकीय महालेखक गणेश जी के भी पसीने छूट जायेंगे। यह सब किसके संरक्षण में हुआ, यह पूछते ही देश का हर नागरिक एक ही नाम लेगा : भाजपा के स्वयंभू ब्रह्मा नरेंद्र मोदी का नाम।

(Adani is India) अडानी क्या है, किसकी वजह से है, यह बात पूरी दुनिया जानती थी। हिन्डेनबर्ग के एन्डरसन ने तो बस उसके दस्तावेजी सबूत जमा किये हैं। इसलिए पहली बात तो यह है कि कोई घोटालेबाज, ठग कैसे स्वयं को भारत का प्रतीक और पर्याय बताने की दीदादिलेरी दिखाने तक जा सकता है? माना कि 1775 में ही अंगरेजी भाषा के प्रख्यात कवि सैमुएल जॉनसन ने कह दिया था कि “राष्ट्रवाद सारे धूर्तों की आखिरी पनाहगाह होता है।” मगर वे भी राजनीतिक धूर्तों की बात कह रहे थे। उनकी कल्पना में भी नहीं रहा होगा कि एक दिन सचमुच के ठग और चोर, भ्रष्ट और धोखेबाज भी उन्ही की उक्ति के अनुरूप राष्ट्रवाद को अपने बचाव के लिए आजमाएंगे ।

(Adani is India) दूसरी बात अडानी की इस सरासर बेहूदगी पर सत्ता और उसके भोंपू मीडिया में इतना सन्नाटा क्यों है? हिंदुस्तान की दुनिया भर में डबल बेइज्जती करवाने वाले इस आपत्तिजनक दावे पर किसी के भी मुँह से कोई बोल क्यों नही फूट रहा? गुजरात के प्रसिद्ध काली दाढ़ी – सफेद दाढ़ी की मजबूरी समझी जा सकती है, आखिर वे तो शरीके जुर्म है। उन्हें आशंका भी होगी कि अडानी “हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी ले डूबेंगे” का दांव भी खेल सकता है। लेकिन चाल, चरित्र और चेहरे के बाकी दावेदार क्यों मुसक्का मारे बैठे हैं? अक्सर झक्क सफेद कुर्ते की नुमाइश करने वाले आडवाणी जी से लेकर अभी हाल तक बात-बात पर बोलने वाले गड़करी तक किसके भय से खामोश हैं? और तो और खुद को सौ टका चरित्र निर्माण करने, राष्ट्र के सम्मान का खुदाई खिदमतगार बताने वाला ब्रह्माण्ड का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन आरएसएस भारत देश के इस अपमान पर काहे सुट्ट मारे बैठा है?

(Adani is India) हर्षद मेहता के चवन्नी भर के घोटाले के बाद ऐसे घपलों को रोकने के लिए और ताकतवर बनाई गई स्टॉक एक्सचेंज को नियमित करने वाली सेबी को लकवा-सा क्यों मार गया है? प्याज न खाने वाली, देश की अर्थव्यवस्था का कचूमर बनाने वाली वित्तमंत्राणी “मैं तो शेयर खरीदती नही, मुझे क्या!” की मुद्रा में हलुआ क्यों खा रही हैं? परिधानों के रंग और खाना खाने के ढंग पर आकाश पाताल एक कर देने वाले भक्तों में अडानी के भारत का पर्याय बन जाने के दावे पर सुरसुरी तक क्यों नहीं हुई? उल्टे वे जिस जुनून से अपने ब्रह्मा के लिए अखाड़े में कूदते हैं, उससे ज्यादा जोश और उन्माद के साथ अडानी के लिए पिले पड़े हैं। जो हिन्डेनबर्ग का ‘ह’ और शेयर मार्केट का ‘श’ तक नही जानते, वे मार विश्लेषण किये जा रहे हैं ।

(Adani is India) यह है वह कायांतरण, जो इस बीच आमतौर से अर्थव्यवस्था के उदारीकरण और खासतौर से राजनीति के मोदीकरण के बाद से हुआ है। यह है मोदी का असली न्यू इंडिया! पूँजीवाद के परिपक्व होने की बाकायदा घोषणा हो चुकी है। भेड़िया बड़ा हो गया है, उसके दाँत और नाखून ठीक ठाक उग आए हैं। अब उसे किसी नेता या पार्टी की आड़ नही चाहिये। 2014 में एक कंसोर्टियम बनाकर वह अपने पसंदीदा को फर्श से उठाकर अर्श पर लाने का सफल परीक्षण करके देख चुका है। उसे पता है कि अब सब कुछ खरीदा जा सकता है, इसलिए अब पूरा इंडिया उसका है, वही इंडिया है। हिन्दुत्वी सांप्रदायिकता के साथ गठबंधन कर कुछ ज्यादा ही तेजी से यौवन पाकर महाकाय हुए इस भेड़िए को गुमान हो गया है कि सारा इंडिया उसका है, कि अब वही इंडिया है ।

1974 में एकदलीय तानाशाही में जब यह नारा एक राजनेता के लिए उठा था, तब लोकतन्त्र स्थगित हुआ था। इस बार यह नारा खुद भेड़िये द्वारा, भेड़िये ने, भेड़िये के लिए लगाया गया है। इस बार लोकतंत्र और संविधान सिर्फ स्थगित भर नही होगा। अगर इसे पूरी ताकत से खदेड़ा नहीं गया, तो इस बार उसे तुरपाई और रफू के लायक भी नही छोड़ा जाएगा।

उर्दू के अजीम शायर वक़ार सिद्दीकी साहब के शब्दों में ठीक यही वजह है कि :
“किसी सदा किसी जुर्रत किसी नजर के लिए
ये लम्हा फिक्र का लम्हा है हर बशर के लिए।”

*(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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